युद्ध सिर्फ प्रश्न खड़ा करता है [भाग२]
युद्ध में अपने बेटे को खो चुकी ,
एक बुढ़िया की कराहने की आवाज,
दूर-दराज तक सबको रुला रही थी।
उसका बेटा युद्ध का भेट चढ गया था।
उसका शरीर क्षत-विक्षत होकर
चारो तरफ बिखरा पड़ा था।
बुढ़िया विक्षिप्त सी हुई,
इधर-उधर भाग कर
अपने बेटे का अंग को समेटने
में लगी हुई थी।
जिस आँचल में उसने कभी ,
अपने बेटे को छुपाया करती थी।
आज उसी आँचल में वह अपने,
बेटे का अंग समेट रही थी ।
कुछ अंग मिल रहे थे कुछ नही ।
पर उसकी नजरे बेटे के अंग को,
ढूँढने में लगातार लगी हुई थी।
बार-बार उसके दिल से
कराह निकल रही थी।
तू मुझे छोड़कर क्यों चला गया ,
ऐसा वह बार-बार बोल रही थी।
अब कौन मुझे माँ बुलाएगा?
कौन बनेगा इस बुढापे का सहारा?
कौन इस बुढ़िया को अब देखेगा ?
ऐसा वह बेटे के क्षत-विक्षत अंग,
देखकर आवाज लगा रही थी।
उसके आँखों के आँसू भी,
अब पत्थर के हो गये थे।
आँसू भी कहाँ उस बुढ़िया का,
साथ निभा रही थी।
वह बार-बार उस युद्ध को
कोस रही थी ।
जिस युद्ध ने उसके लाल को
उससे छिन लिया था।
वह कहां कभी जीवन भर
खुद को सम्भाल पाती है।
उसकी नजरे हर समय बेटे के अंग को ,
ढूँढ़ने में ही रह जाती है।
बार- बार उसके मुख से यही
बोल तो निकलते है,
मेरे बेटे का एक हाथ ही मिल पाया था।
उसके पैर का तो पता ही न चल पाया था।
मैंने तो अपने बेटे का
पूरा अंग भी न जला पाई थी।
उसका बचा हुआ अंग
आज तक कहाँ मुझे मिल पाया है ।
आज भी वह बुढ़िया
यही बड़बड़ा रही है
और उसके नजरें आज भी
बेटे के अंग की
तलाश कर रही है।
युद्ध क्यों हुआ था?
उससे हमें क्या मिला?
आज भी वह इसका
उत्तर ढूँढ रही है।
आज भी अपने मन में
प्रश्न लिए खड़ी है!
~अनामिका