यह मन

यह मन,
जो हो नहीं सका कभी अपना,
जबकि मनाता रहा मैं इसको,
अपना जीवन इसको समझकर,
और करता रहा रोज इसकी सेवा,
इसका एक सेवक बनकर मैं,
फिर भी यह मुझको नहीं हंसा सका।
यह मन ,
जो भटकाता रहा मुझको हमेशा,
नये नये सपनें दिखाकर,
नया नया लालच दिखाकर,
नई नई मंजिले दिखाकर,
और नये नये बाग दिखाकर,
लेकिन यह दे नहीं सका मुझको शांति।
यह मन,
जिसकी करता रहा हमेशा पूजा,
अपना ईश्वर मैं मानकर,
इसकी मैं तस्वीर बनाकर,
चढ़ाता रहा रोज इस पर फूल,
फिर भी यह महका नहीं सका,
मेरे इस जीवन को।
यह मन,
जिसको क्या कहूँ मैं ,
इनके विभिन्न रूपों को देखकर,
किसी से वफादार या बेवफा,
या फिर मतलबी और लालची,
जो बदलता रहता है हरपल,
अपना रंग और इरादा,
एक बहरूपिये की तरहां।
शिक्षक एवं साहित्यकार-
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)