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22 May 2022 · 3 min read

*यदि सरदार पटेल न होते तो भारत रियासतों का संघ होता*

लेख
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*यदि सरदार पटेल न होते तो भारत रियासतों का संघ होता*

वास्तव में अंग्रेज एक बिखरा हुआ भारत छोड़ कर गए थे । तमाम रियासतों में यह देश बँटा हुआ था और अंग्रेज किसी भी कीमत पर एकीकृत भारत के उदय के पक्ष में नहीं थे । देश को दो टुकड़ों में बाँटकर उसे कमजोर करने की नीति में उन्होंने पहले ही सफलता प्राप्त कर ली थी । अब राजाओं-महाराजाओं की रियासतों को स्वतंत्र बनाए रखने का विकल्प खुला छोड़ कर उन्होंने भिर्रों का एक ऐसा छत्ता टाँग दिया था, जिसे छूने का साहस केवल सरदार पटेल ही कर सकते थे ।
कोई राजा महाराजा अपनी रियासत देश में मिलाने के लिए तैयार नहीं था । होता भी क्यों ? सत्ता बड़ी चीज होती है । छोटे-छोटे जमीन-जायदाद और धन-संपत्ति तक के मामलों में व्यक्ति अपना कब्जा छोड़ना नहीं चाहता । एक राजा अपनी रियासत भला कैसे छोड़ देता ? राजा-महाराजा तो यही चाहते थे कि उनकी रियासतें बनी रहें और केंद्र सरकार उनकी रियासतों के माध्यम से देश पर राज करती रहे । कुल मिलाकर इस समूची रणनीति का सार यही था कि भारत “रियासतों का संघ” बन कर रह जाता । इस चक्रव्यूह को सरदार पटेल ने तोड़ा और अपने संक्षिप्त जीवन काल में उन्होंने इस असाधारण कार्य को संभव करके दिखा दिया।
आजादी के अमृत महोत्सव में जब हम अतीत पर दृष्टिपात करते हैं तो जहाँ एक ओर रियासतों के विलीनीकरण से उपजे प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति नतमस्तक होने को जी चाहता है वहीं दूसरी ओर इस पुरातन राष्ट्र के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने वाली प्रांतवाद की आँधी से भी हम लापरवाह नहीं रह सकते ।
भारत के अनेक ऐसे राजनेता जिन्होंने अपने बलबूते पर केंद्र में सरकार बनाने के विचार के आगे हार मान ली है ,अब प्रांतवाद को भड़काने में अपने क्षुद्र लक्ष्यों की पूर्ति महसूस कर रहे हैं । उनका सारा जोर राज्यों को अधिक से अधिक शक्ति देकर केंद्र के समकक्ष खड़ा करने का है । इनमें से ज्यादातर नेताओं का जनाधार केवल किसी एक राज्य-विशेष तक सिमटा हुआ है । कुछ का जनाधार कुछ गिने-चुने राज्यों तक सीमित रह गया है । अखिल भारतीय स्तर पर एक बड़ी शक्ति बनकर उभर पाने की उनकी संभावनाएँ समाप्त होने के कारण ही राष्ट्र के प्रति यह विघातक विचार प्रबल हो रहा है । यह सब उस मूल भावना पर कुठाराघात करने के समान है जिसके अंतर्गत इस देश ने सरदार पटेल के नेतृत्व में रियासतों का विलीनीकरण किया था ।
अनेक बार तो यह भी लगता है कि राज्यों का गठन जिस प्रकार से अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही परिपाटी के अनुरूप हमने आजादी के बाद कर डाला ,वह कहीं एक चूक तो नहीं हो गई । राज्यवाद इस देश की राष्ट्रीय एकता के सामने चुनौती बन जाएगा अथवा यूं कहिए कि राष्ट्र को ही प्रश्न चिन्ह के घेरे में ले आएगा ,यह कभी सोचा भी शायद नहीं गया था । जब तक केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकारें चलीं, भारत को राष्ट्र के स्थान पर राज्यों का संघ मानने की गलती कहीं नहीं हो पाई । केंद्र के कमजोर होने से राज्य अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए आतुर हुए । केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकार होने से उनमें मतभेद प्रबल हुए और राज्यों के सत्तासीन नेताओं और दलों ने राष्ट्र की राष्ट्रीय-धारा से अलग हटकर अपना जोर लगाना शुरू कर दिया ।
एक राष्ट्र के रूप में भारत का उदय पंद्रह अगस्त 1947 की एक महत्वपूर्ण घटना है । रियासतों के विलीनीकरण ने एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्थापना को बलवती बनाया और किसी भी प्रकार के क्षुद्र क्षेत्रवाद को शक्तिशाली बनने से रोक दिया । अगर क्षेत्रवाद ही चलाना होता ,तो जैसे राज्य हैं वैसे ही रियासतें भी चल सकती थीं। लेकिन देश के आत्म-गौरव को यह सहन नहीं था । भारत एक राष्ट्र के रूप में मजबूती के साथ आगे बढ़ना चाहिए । राज्य अगर रहते भी हैं तो उन्हें केवल उसी सीमा तक अस्तित्व में रहने की इजाजत दी जानी चाहिए जब तक कि वह राष्ट्र को चुनौती देने का विकृति-मूलक रुख अख्तियार नहीं करते । “राज्यों का संघ” कहकर हम भारत के राष्ट्रीय गर्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकते । अतः भारत एक राष्ट्र था ,एक राष्ट्र है और एक राष्ट्र रहेगा ।
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

Language: Hindi
Tag: लेख
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