मायके की धूप रे

आज ऑंगन द्वार ताके
देहरी को कौन लीपे
है बहुत मजबूर अपनी
कल्पना के रूप रे।
मन उचक कर फिर बुलाता
मायके की धूप रे।।
कौड़ियों–गुट्टों के ऊपर
छा सा जाता था समय
गुनगुनी लय मेँ बंधा वो
फाग लाता था मलय
सात सुर मधुगीत मेँ भर
गूँजते थे सूप रे।
मन उचक कर फिर बुलाता
मायके की धूप रे।।
माथ पर बिखरीं लटें और
चपल लोचन ताकते
मधुर स्मृतियाँ सलोनी
मोर-पंखी हाथ ले
बाल्टी रस्सी से सजता
गाँव का था कूप रे।
मन उचक कर फिर बुलाता
मायके की धूप रे।।
है व्यथित गंगा का तट
है चिरयुवा वो रेत भी
याद आते हैं पिता के
मौन से संकेत भी ।
वो ही थे जीवन के मेरे
जादुई से भूप रे
मन उचक कर फिर बुलाता
मायके की धूप रे।।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ