मंज़र
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अनजान हैं मेरे जो मंज़र से,
दिये हैं ज़ख्म वही तो खंजर से
बाहर से उसको अन्दाज़ा नहीं,
टूट गया हूँ बहुत मैं अन्दर से,
अनजान हैं मेरे जो मंज़र से,
दिये हैं ज़ख्म वही तो खंजर से
बाहर से उसको अन्दाज़ा नहीं,
टूट गया हूँ बहुत मैं अन्दर से,