मंजरी को चाहता हूँ ( गीत ) पोस्ट -२३
मंजरी को चाहता हूँ ( गीत )
तुम कली की मौत पर खुशियॉ मना लो भले ही पर,
मैं खिले फूलों महकतीं मंजरी को चाहता हूँ ।।
लहलहाते पादपों का कौन यह निष्ठुर बधिक है।
किया किसने इन सरों में नीर कम,दलदल अधिक है।
देखकर नीरज सुमन तुम तोड़ना यदि चाहते हो,
दूर से ही देखना मैं वनचरी को चाहता हूँ ।।
ठहर अब जाओ हवाओं!नीड़ बसते मत उजाड़ो
इस धराके घाव अब तुम| काटकर वन मत उघारो !
इन बबूलों के वनोंके शूल जिसके भी लिए हों,
पादपों पर मैं सरसती रसभरी को चाहता हूँ।।
हो रहा काला वदन है ताजका जो चिमनियों से
रक्त रुक रुक बह रहा है, क्यों ह्रदयकी धमनियों से ।
चिमनियों से फूटते इस धूम्र के स्वामी बनो तुम
मैं भरे भादों विचरती जलतरी को चाहता हुूँ ।।
मैं खिले फूलों महकतीं मंजरी को चाहता हूँ ।।
—- जितेंद्रकमलआनंद