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18 Sep 2022 · 5 min read

मंगलवत्थू छंद (रोली छंद ) और विधाएँ

छंद- “मंगलवत्थू (रोली ) छंद ” (मापनीमुक्त मात्रिक)
विधान- 22 मात्रा, 11-11
दोहे का सम चरण + किसी भी त्रिकल से प्रारंभ करके शेष समकल (अर्थात चरणांत चौकल आवश्यक ) जगण का चौकल अमान्य होता है
विशेष – (दोहे का सम चरण , आपको सुविधा से समझने हेतु लिखा है , पर इसमे में भी आप यति किसी भी त्रिकल से कर सकते है

अब सीधी सरल विधि
रोला के सम चरण (13 ) में दो मात्रा कम कर दीजिए
रोली (मंगल वत्थू ) छंद बन जायेगा

(रोली )नामकरण भी मनीषियों ने शायद इस आधार पर दिया होगा कि यह रोला की तरह चाल लेता है , चूकिं रोला तेरह का होता है , और यह ग्यारह पर पदांत करता है , इसीलिए इसे ” रोली” भी कहा जाता है

कहने का आशय यह है कि , रोला =11- 13 व रोली = 11 – 11

रोली (मंगल वत्थू) छंद

प्रमुख वेद है चार, भरा है सार जहाँ |
करते जन उपकार , रहे रसधार वहाँ ||
पूजन हित ऋग्वेद , जगत को बतलाएँ |
आवाहन हो देव , नियम को समझाएँ

यजुर्वेद में सार , सहज ही मिलता है |
दिखता अनुपम रूप, कमल सा खिलता है
गुरुवर जपते मंत्र , वचन से समझाते |
आवाहन कर गंग , सभी को नहलाते ||

अथर्ववेद शिरमौर , धनी का भेद कहे |
अर्थ तंत्र का ज्ञान , जहाँ पर सार बहे ||
रखे अर्ध क्या मूल्य , यही यें गुण गाता |
अर्थ सृष्टि का चक्र , चलाना बतलाता ||

सामवेद का ज्ञान , स्वरों का है दानी |
पूरा लिखा विधान , लयों का है पानी ||
लिखता यहाँ सुभाष, हृदय से रख नाता |
माँ के चरण पखार , सदा ही गुण माता ||

आयुर्वेद उपवेद, यहाँ पर कहलाता |
धनुर्वेद –गंधर्व , शिल्प भी है आता ||
और अठारह ग्रंथ , पुराणों में आते |
जीवन के सब सूत्र , मनुज को बतलाते ||

मिले अनेकों शास्त्र, सभी अब खिलते है |
अवतारी चौबीस, यहाँ पर मिलते है ||
मंगलवत्थू छंद , सुभाषा लिखता है |
कंटक करता दूर , सभी को दिखता है ||

सुभाष ‌सिंघई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

छंद- “मंगलवत्थू ( रोली ) ” (मापनीमुक्त मात्रिक)
विधान- 22 मात्रा, 11-11
दोहे का सम चरण + किसी भी त्रिकल से प्रारंभ करके शेष समकल (अर्थात चरणांत चौकल आवश्यक ) जगण का चौकल अमान्य होता है

विशेष – (दोहे का सम चरण , आपको सुविधा से समझने हेतु लिखा है , पर इसमे में भी आप यति किसी भी त्रिकल से कर सकते है

मंगलवत्थू (रोली)छंद (मुक्तक )

सप्त जलधि भी नीर, जगत त्रय बरसातें |
तुलना से वह दूर , जहाँ प्रेम रस बातें |
मिलता है आनंद‌, शिवा का नाम जहाँ-
फूलों सा मकरंद‌, महकती है रातें |

राधा‌ यमुना तीर , बैठकर धुन सुनती |
कृष्णा करे निहार , हृदय‌‌ में कुछ गुनती ||
मेरा सब संसार , समाहित है इसमें ~
तब क्यों खोजें द्वार,भाव यह उर बुनती |

देख रहे हम राह , लोग भी अब न्यारे |
उनकी देखी चाह , रोग भी है प्यारे |
उपदेशों में ज्ञान , सभी को वह बाँटें ~
खुद पर नहीं प्रयोग , करें वह बेचारे ||

घी का देते होम , मिर्च भी खुद डाले |
मंशा रखकर लूट , बने खुद रखवाले |
पैदा करते खार , कहें यह है अमरत ~
उनकी लगती बात , मकड़ के है जाले |

नहीं आचरण शुद्ध , बने है खुद देवा |
कहते बनकर बुद्ध , करेगें जन सेवा |
उल्टे-पुल्टे काम , सभी उनके देखे ~
रखते लड्डू हाथ , भरी जिसमें मेवा |

जीवन में कई मोड़ , सैकड़ो चौराहे |
पग- पग पर व्यव्धान , रोकना भी चाहे |
मिल जाती है चोट , यार भी दे जाते ~
बनते वही निशान , याद करने आते |

नेताओं को श्राप , कभी मत दे देना |
उनका रहता कर्म , काटना ही लेना ||
वह चुनकर ही चुने , हमें जस-तस‌ देते‌~
बनकर जन के भाग्य , लूट की दे सेना |

सुभाष सिंघई
~~~~~~~~~~~~~~~~

छंद- “मंगलवत्थू (रोली)” (मापनीमुक्त मात्रिक)
विधान- 22 मात्रा, 11-11
दोहे का सम चरण + किसी भी त्रिकल से प्रारंभ करके शेष समकल (अर्थात चरणांत चौकल आवश्यक ) जगण का चौकल अमान्य होता है

विशेष – (दोहे का सम चरण , आपको सुविधा से समझने हेतु लिखा है , पर इसमे में भी आप यति किसी भी त्रिकल से कर सकते है

मंगलवत्थु (रोली छंद )
स्वर – आनी , पदांत -है दुनियाँ

रखते जग से आस , सयानी है दुनियाँ |
अज़ब -गज़ब के खेल , कहानी‌ है दुनियाँ ||

पहन शेर की खाल , गधे अब चलते है ,
ढेंचू की आबाज , दिवानी है दुनियाँ |

बाँटे मुफ्त सलाह , घरों पर ही जाकर ,
समझ न आती बात , मथानी है दुनियाँ |

जोड-तोड़ के तार , बहुत से मिलते है ,
बनती सभी जुगाड़‌ , जपानी है दुनियाँ |

जग मेले में प्यार , सुभाषा भी देखे ,
जानों मेरी सोच , रुहानी है दुनिया |√

सुभाष सिंघई

विधा-गीतिका
स्वर समान्त- “अद “, पदान्त- ” मिलता है “।

करने लगें घमंड , जिन्हें पद मिलता है |
चार जनों के बीच ,सहज कद मिलता है |

तथा कथित सरदार , जगत में मिल जाते,
अवसर का लें लाभ , भरा मद मिलता है |

जुड़ें जमूरे चार , जयति जय तब होती ,
फिर भी करते रार , खार बद मिलता है |

मुझको रहे जुखाम , मेंढ़की -सी बातें ,
पर लालच की धार , भरा नद मिलता है |

मेंढक सम अविराम , फुदककर जो खाते ,
उनको माल सुभाष, गदागद मिलता है |√
(गदागद = भरपूर)

सुभाष सिंघई
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मंगलवत्थू (रोली छंद ) गीतिका
स्वर समांत – अती , पदांत बहिना

मात -पिता की डाँट , सहन करती बहिना |
भाई का दे साथ , नहीं डरती बहिना |

गलती भाई करे, बने वह खुद दोषी ,
भैया है निर्दोष, वचन भरती बहिना |

जूता टाई ड्रेस , बैग की निगरानी,
करती यथा सम्हाल, तथा धरती बहिना |

नहीं खर्च को दाम , पिताजी जब कहते ,
निज संग्रह दे दान , कष्ट हरती बहिना |

भाई को हो ताप , सजकता आ जाती ,
बनकर निर्मल झील , सदा झरती बहिना |

सीमा पर हो भ्रात , खबर वह सब रखती ,
भाई‌ वहाँ शहीद , इधर मरती बहिना |

अमर बहिन का प्यार , नहीं तुलना आती,
भाई‌ जहाँ स्लेट‌, वहाँ बर्ती बहिना |√

सुभाष सिंघई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मंगलवत्थु ( रोली छंद ) गीतिका

स्वर – अर , पदांत – अब

जिसको है अभिमान ,चार पग चलकर अब |
नहीं रहेगी शान , नीति को तजकर अब |

करते रहते नाच , ढ़ढ़ौरा‌-सा पीटे,
आत्म मुग्ध वह लोग‌, स्वयं को छलकर अब‌ |

अपनाकर जो नीति , हड़प की चलते है ,
हासिल नहीं मुकाम , अलग से हटकर अब |

चापसूस भी घात , जहाँ पर करता है
दिशा दशा है श्वान , गेह में पलकर अब |

खुल जाता है राज , सामना जब होता ,
गीदड़ बनते शेर , खाल से सजकर अब |

करते रहे गुनाह , संत का घर चोला,
आडम्बर अभिमान , भस्म को मलकर अब |

रखते सबसे चाह , दिखावा करते है ,
कहते अमरत मान , जहर को ढ़ककर अब |

सुभाष सिंघई

********************************
मंगलवत्थु ( रोली छंद ) अपांत‌ गीतिका

लोभ का हाल

जिस घर सुनो पनाह , लोभ को मिलता है |
पापी होता बीज , शूल सा खिलता है |

हुआँ क्षीण ‌सम्मान , नहीं चिन्ता करता ,
हाय-हा़‌य का झाड़ , सदा ही हिलता है |

चापलूस भी आन , वाह भी कर जाते ,
चिथड़ों जैसा‌ मान , बैठकर सिलता है |

बनते है‌‌ हालात , अकेला ही रहता ,
जब सूखा हो पेड़ , तना ही छिलता है |

आडम्बर का ताज , शीष पर वह बाँधे ,
पा घोड़ा घुड़साल गधा‌ – सा ढ़िलता है

सुभाष ‌सिंघई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

बेटी लिखती पत्र , समय पर तत्पर हो |
पिता हमारे आप , कहाँ से पत्थर हो |?
`~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

मंगलवत्थु (रोली छंद ) 11 – 11 गीतिका
त्रिकल यति त्रिकल , पदांत चौकल
स्वर – आह , पदांत – जरा तुम चुप रहना

मिलती मुफ्त सलाह , जरा तुम चुप रहना |
देखों उनकी चाह , जरा तुम चुप रहना ||

नहीं माँगिये आप , मिलेगी घर बैठे ,
वह बोलेगें बोलें वाह , जरा तुम चुप रहना |

अपना अक्ल गुरूर , बताकर जायेगें ,
मुझमेंं भरा अथाह , जरा तुम चुप रहना |

कही न उनका ठौर , महल अपना कहते ,
दिल की निकले डाह , जरा तुम चुप रहना |

देते दान सुभाष , देखते भर रहना ,
है बातूनी शाह , जरा तुम चुप रहना |√

सुभाष सिंघई
~~~~~~~~~~~~~

Language: Hindi
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