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20 Aug 2019 · 1 min read

बेटियाँ

बाबुल के आंगन की बेटियां होती हैं मोमबत्तियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होंती हैं फुलझड़ियाँ

बड़े लाडो में पलती हैं फूलों सी होती हैं नाजुक
प्यार दुलारों में फलती हैं होती हैं बड़ी ही भावुक
फिर क्यों दुत्कारी जाती हैं होती हैं बुरी घड़ियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़ियाँ

प्रकृति की श्रेष्ठ रचना हैं पर घुट घुट के जीतीं हैं
बेटा-बेटी का करें अन्तर इस भेदभाव में जीतीं हैं
कब मिलेगा मूल मन्तर जब टूटेगी ये कुल बेड़ियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़ियाँ

मायके में पराई होती कभी ससुराल कहे न अपना
कुटम्ब-कुटीर सींचन में अधूरा रहे खुद का सपना
जब कहेंगे सब अपना आँएगी वो खुशनसीब घड़ियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़िया

कभी भाई के पहरे में कभी पिता के साये में जीती हैं
कभी पति के रौब तले कभी बेटों के कहने पर जीती हैं
कब जिंएगी जीवन अपना जब खांएगी रसभरियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़ियाँ

सुखविंद्र सिर्फ मनसीरत

Language: Hindi
Tag: कविता
2 Likes · 169 Views

Books from सुखविंद्र सिंह मनसीरत

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