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27 Nov 2016 · 1 min read

बात दर बात हो फैसला कुछ नहीं

बात दर बात हो फैसला कुछ नहीं
एक छल है ये छल के सिवा कुछ नहीं
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मिट गये हम ख़ुशी से वतन के लिये
और तुम कह रहे हो हुआ कुछ नहीं
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दिन ब दिन जा रहा है उजड़ता चमन
बुलबुलों को गुलों को पता कुछ नहीं
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लोग करते नहीं बात इंसाफ़ की
कुछ कहो तो कहेंगे कहा कुछ नहीं
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जानते हैं सभी झूठ का साथ दे
इस जहां में किसी को मिला कुछ नहीं
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रहबरों में सभी लोग अपने ही थे
लुट गया कारवाँ कल बचा कुछ नहीं
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बेगुनाही करे तो करे आज क्या
जब गुनाहों की जग में सजा कुछ नहीं
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उड़ गया हर परिंदा शजर छोड़ कर
कहके गुलशन में अब तो रहा कुछ नहीं
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298 Views

Books from Rakesh Dubey "Gulshan"

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