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27 Jul 2021 · 1 min read

बँटवारे का दर्द

बँटवारे का दर्द
~~~~~~~~~

खंजर भोंक माँ के सीने में हज़ारों,
खण्डित कर दिया निजस्वार्थ के सितारों।
छलकाती दर्द मानवता का धरा पर,
भारत के दो टुकडों हुए हैं यहाँ पर।

रिश्ता बटी, फरिश्ता बटा,
बटी फिर, आह मिट्टी की।
शिक्षा बटी, बस्ता बटा,
बटी फिर, नाज भिट्टी की ।

सिंधु की तकदीर में ही थी,
सीमा के उस पार ही बहना।
सभ्यता की इक निशानी को,
लुटेरों के संग-संग अचल रहना।

सत्ताधीन होना जो था,
आतुर उस महारथ ने ।
जनों के लाश महलों पर,
भुवन प्रासाद बना डाला।

तड़पती प्राण जन- मन के,
बिलखती लाज अबला की ।
उजड़ी मांग सिंदूरी थी,
राष्ट्र के वीरांगनाओं की ।

सीमाएं बाँट कर दुर्योधन,
अहं का अट्टहास कर बैठा।
आतुर राजसत्ता को,
वतन का सर्वनाश कर बैठा।

खण्डित हो गई थी सपूतों की,
कल्पित कपोल कल्पनाएं ।
उन्हें तब कौन समझाता ,
जन -मन की आकांक्षाएं ।

निजस्वार्थ सत्ता में लिपटकर,
पृथक कानून भी बना डाला।
लगा कर धर्म का मरहम,
संस्कृति को भी टुकड़े कर डाला।

यहाँ दौलत का भी होता बँटवारा,
सदा मजहब के तराजू पर ।
बताओ कौन सा है देश ऐसा,
जहाँ कानून का भी होता बँटवारा।

इकलौता देश है भारत जहां,
पृथक है रिश्तों की परिभाषा ।
कहीं बहुपत्नीक प्रथा की आज़ादी,
कहीं पतिव्रता नारी की अभिलाषा।

जो दे नहीं सबको समानता,
गजब उस न्याय की धारा ।
वक़्त की इस नजाकत को,
समझ लो अब तुम इशारा।

मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २७ /०७/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201

Language: Hindi
16 Likes · 8 Comments · 2479 Views
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