फिर भी तो बाकी है
फिर भी तो बाकी है,
मेरी इच्छाऐं और मेरे अरमान,
जिनका नहीं है कोई अन्त,
और बढ़ती जा रही है चाहतें,
मन में उमड़ते विचारों के साथ।
पांच वर्ष का था मैं,
तो सोचता था वयस्क होने की,
बालिग हुआ तो इच्छा जागी,
जीवन साथी और घर बनाने की,
सन्तान हुई तो सोच बदली,
सोचने लगा उनके भविष्य की,
भूल गया फिर शेष रिश्तों को,
बुरे लगने लगे शेष परिचित।
अब मैं खड़ा हूँ ,
उम्र के तीसरे पायदान पर,
और जी रहा हूँ वृद्धाश्रम में,
सरकार की दया पर,
सरकार की उम्मीदों पर,
लगने लगा हूँ मैं अब बुरा,
अपनी सन्तानों को,
यह है मेरी सेवा का प्रतिफल।
नहीं सोचा था कल ऐसा,
कि कौन निभा सकता है,
मुझसे रिश्ता उम्रभर,
किससे मिलेगा मुझको,
बुढ़ापे में अच्छा प्रतिफल,
लेकिन अपना ही तो लहू है,
कैसे तोड़ दूँ इनसे रिश्तें मैं,
इसी विश्वास के साथ,
अपनों से मेरी उम्मीदें,
फिर भी तो बाकी है।
शिक्षक एवं साहित्यकार-
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)