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23 Sep 2024 · 1 min read

फिर तुम्हारी आरिज़ों पे जुल्फ़ याद आई,

फिर तुम्हारी आरिज़ों पे जुल्फ़ याद आई,
सुबह-सबेरे, वो शाम-ए-लुत्फ़ याद आई।

मैं भूल चुका था तुम्हें, हमेशा के लिए,
यक-ब-यक, तुम्हारी फ़िक्र याद आई।

तुम जो मेरे बाजू में अक्सर गुनगुनाती थी,
वो मीठी नज़्म तुम्हारी, शबे-हिज्र याद आई।

कौन कहता है, माजी रिश्ते फना हो जाते हैं
हमें उम्र-दराज़, रिश्तों की कद्र याद आई।

वक़्त के साथ, बिंदास हो गये हो तुम भी,
बाँहों में पहली मर्तबा, तुम्हारी शर्म याद आई।

दौरे-क़ुुर्बत क्या-क्या न हो पड़ता उस दरम्यां,
कुछ तुम्हारी, कुछ हमारी हदे-सब्र याद आई।

2 Likes · 3 Comments · 62 Views
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