~प्रकृति~(द्रुत विलम्बित छंद)

गगन, सूरज, चाँद, हरी धरा।
जगत रूप यही तो प्रकृति है।
दिख रहा सब जो इस आँख से,
प्रभु प्रदत सुन्दर यह कृति है।
सुबह सुन्दर रूप प्रभात का,
स्वरचित कुछ छ्न्द सा गा रहा।
पवन वेग सुगंध बटोर के,
सुखद गंध बसंत बना रहा।
सकल वसुधा है सबके लिए,
प्रकृति -धरणी मातृ समान है।
करज धरती के समझे बिना
समझ कैसा कब यह ज्ञान है।
बदल सोंच संग प्रकृति के,
नयन खोल न नष्ट करो इसे,।
प्रकृति है तो सब कुछ साथ है,
इक यही जीवन सब दे तुझे।
–“प्यासा”