*पुस्तक समीक्षा*

*पुस्तक समीक्षा*
*पुस्तक का नाम : सैनिक (काव्य)*
*प्रकाशन का वर्ष : 1999*
*रचयिता : रवि प्रकाश*
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
*समीक्षक : श्री गोपी वल्लभ सहाय, सुप्रसिद्ध कवि,* सदस्य हिंदी प्रगति समिति, बिहार सरकार, रोड नंबर 14, क्वार्टर नंबर – 8, गर्दनीबाग, पटना 800002
फोन 25 1684
—————————————-
*समीक्षा की तिथि* 27-10-99
—————————————-
*सैनिक : एक शहीदनामा*
प्रिय रवि जी 27 -10 – 99
आज कुरियर से आपकी कविता पुस्तक *सैनिक* मिली । खोलते ही पढ़ गया । सैनिक शीर्षक की कविता तो 22 पन्नों में फैली हुई है। इसकी भाषा इतनी जीवंत और प्रवाहमयी है कि एक बार जो शुरू किया तो 38 वें पृष्ठ पर ही छोड़ा । ऐसा बहुत कम होता है। सीधे-सच्चे शब्दों में यह *शहीद नामा* है । मैं तो यही मानता हूॅं। आपने एक प्रवाह में ही लिखा होगा। यह आपके भीतर से प्रवाहित भावोद्गार हैं, जो आपकी अटूट देशभक्ति का द्योतक है । ऐसी कविता दुर्लभ है, जो पाठकों को आद्यंत बॉंधती हो । आपके उद्गार और अभिव्यक्ति में वह शक्ति शब्दों में अंतर्निहित है, जो स्वत: पढ़ने वाले मन को बरबस बांध लेती है । इसकी रचना के लिए बहुत बधाई।
22 वां छंद तो अनायास आंखें भिंगो जाता है :-
*वह देखो सैनिक शहीद होने को व्याकुल रहता*
*जिसके भीतर देश प्रेम का झरना झर झर बहता*
*ऐसे सैनिक पर करती भारत माता अभिमान है*
*धन्य धन्य सैनिक का जीवन, धन्य धन्य बलिदान है*
इस लंबे छंद में मुसलमान भारतीय सैनिकों और आजादी के दीवानों मुसलमानों का भी अच्छे शब्दों में उल्लेख है :-
*कुर्बानी अशफाक दे गए तो आजादी आई*
*यह शहीद अब्दुल हमीद से आजादी बच पाई*
*मुसलमान की बात कर रहा झूठा पाकिस्तान है*
*धन्य धन्य सैनिक का जीवन, धन्य धन्य बलिदान है*
अनेकों छंद उद्धरणीय हैं। मेरा ध्यान सौ वें छंद पर भी ठहर गया :-
*मंगेतर ने कहा, धन्य मंगेतर ऐसा पाया*
*शादी जिससे होनी थी, वह काम देश के आया*
*मुझे गर्व है उस पर जो संबंध जुड़ा अभिमान है*
*धन्य धन्य सैनिक का जीवन, धन्य धन्य बलिदान है*
जनमानस और जन-भावना का भी सही प्रतिबिंब है आपकी कविता “सीमा पर यह कैसा खिलवाड़ है” में। इसकी पहली पंक्ति तो इतनी सच्ची है कि आपकी कलम को चूमने का जी होता है :-
*पूछ रही जनता सीमा पर यह कैसा खिलवाड़ है*
लेकिन आपके एक भाव-अतिरेक को मेरे जैसा आदमी नहीं पचा पाया जहॉं आपने लिखा है :-
*रद्द करो बॅंटवारा सारा पाकिस्तान हमारा है*
आज ही डाक से *”सहकारी युग”* का ताजा अंक मिला (25 अक्टूबर का अंक) जिसमें आपकी समीक्षा है । माधव मधुकर की गीत-पुस्तक “किरणें सतरंगी” मुझे भी मिली है। घर में महीनों से उलझा हूॅं। इसीलिए माधव भाई को लिख नहीं पाया । थोड़ा सोने से पहले समय मिल गया, आपकी किताब पढ़ ली और लिख गया, बस !
आपका
गोपी वल्लभ