पुस्तक समीक्षा
ISBN – 978-81-955701-6-4
पुस्तक – हो जाये मन बुद्ध (अनागत दोहा संग्रह)
रचनाकार – डा. अजय प्रसून
प्रथम संस्करण – 2022
स्वत्वाधिकार – रचनाकार
मूल्य – रू. 175/-
प्रकाशक – सावी पब्लिकेशन
एल. जी. एफ. -6, वंशीधर काम्प्लेक्स
डालीगंज, लखनऊ – 226020 (उ.प्र.)
मो.: 9335221278
शब्द-संयोजन – सदाशिव तिवारी
मुद्रक – विवेक प्रिन्टर्स, निकट डालीगंज क्रासिंग
लखनऊ – 226020, मो. 9140533271
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“HO JAYE MAN BUDHA” (Anagat Doha Sangrah)
By : Dr. Ajay Prasoon
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हमारे लखनऊ के गौरव आदरणीय ‘अजय प्रसून’ साहब की अद्भुत लेखनी को मेरा सादर नमन। इनके द्वारा रचित अति विशिष्ट गीत – ग़ज़ल तो मैं सुनती ही रहती थी, परंतु जब दोहे की ये पुस्तक मेरे हाथ में आई तो इनकी लेखनी पढ़कर मैं भावविभोर हो गई। इतनी सहृदयता से, कम शब्दों में बड़ी-बड़ी एवं गूढ़ बाते कह गये हैं प्रसून साहब कि ईश्वर को कोटिश धन्यवाद देने का मन किया जिसने मुझे इतने समृद्ध कवि के साहित्य को पढ़ने का अवसर दिया।
डा. अजय प्रसून जी की पुस्तक ‘हो जाये मन बुद्ध’ (अनागत दोहा संग्रह) विभिन्न रंगो को सँजोये है। इसको पढ़कर ऐसा प्रतीत हुआ है कि जो भी पन्ना पलटा, भावों का रंग बदल गया | सामाजिक परिवर्तन, वैचारिक उथल-पुथल, मृतप्राय संवेदना तथा राजनीति का नैतिक पतन, हर समस्या पर इनके दोहे प्रभाव छोड़ते हैं।
उदाहरण स्वरूप –
कठिनाई का दौर है, वातावरण मलीन
सबके सिर पर कलयुगी , राजमुकुट आसीन।।
पुस्तक में एक तरफ जहाॅं हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु अनुरोध किया गया है वहीं दूसरी तरफ समाज में व्याप्त सामाजिक विसंगतियों पर भी कटाक्ष किया गया है। 144 पृष्ठों में करीब 896 दोहे संकलित हैं।
कवि को सादर आभार, साहित्य की इतनी सजग सेवा करने हेतु।
पुस्तक में पुरोवाक में डा. गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल जी’ ने प्रसून साहब की पुस्तक के बारे में जो चर्चा की वो एकदम सही साबित हुई | बहुत से नए साथियों को यह पता भी नहीं होगा कि आदरणीय प्रसून साहब विगत पाँच दशक से साहित्य सेवा में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं | उनकी तकरीबन तेरह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और यह चौदहवीं आप सबके सम्मुख है |
प्रसून साहब के दोहों की जो विशेषता है वो यह कि इन्होने कोई भी विषय छोड़ा नहीं है। इन्होंने भक्ति और नीति के साथ विभिन्न पर्वों, मानवीय रिश्तों को भी अपने दोहों में स्थान दिया है। दोहे इतने शब्द माधुर्य से भरे हैं कि पढ़ते-पढ़ते सहसा वाह-वाह निकल पड़ता है।
‘अनागत कविता आंदोलन’ के प्रवर्तक आदरणीय प्रसून साहब के दोहे सहयात्रियों को उनके कर्म के प्रति सचेत करते हैं। कवि ने अनेक देवी-देवताओं के माहात्म्य को भी शब्दों में बाॅंधा है। इन्होने भ्रूण-हत्या, आत्म-विज्ञापन की प्रवृति, प्रदूषण, राजनैतिक छ्ल-कपट जैसे विषयों पर भी अपनी सुदृढ़ लेखनी चलाई है तथा पाठक के अंत:स्थल को स्पर्श कर पाने में सफल रहे हैं। आज के परिवर्तनशील समय में प्रसून साहब के दोहे साहस के साथ अभिव्यक्ति के पथ पर चल पड़े हैं तथा समाज के कोने-कोने में फैले असह्य दर्द को, भेदभाव को, तथा धर्म के वास्तविक स्वरूप को रच पाने में सफल हुए हैं।
‘अनागत’ की चेतना को जगाते हुए जिस दृढ़ विश्वास से इनकी लेखनी चली है, वो चमत्कृत कर देने वाली है। तद्भव और देशज शब्दों का बखूबी प्रयोग करते हुए कवि समाज से बदलाव की आशा भी रखता है।
इतनी भाव-प्रवणता है इनकी लेखनी में कि पढ़ते ही मन कुछ सोचने को विवश हो जाता है। एक उदाहरण देखिए –
मेरे कहने का यही, समझों तुम अभिप्राय।
बात वही करना सदा, जाने जो समुदाय।।
इनका जहाँ ईश्वर के प्रति अगाध समर्पण दिखता है –
अस्त-व्यस्त जीवन हमें, लगता जैसे भार।
बालाजी इस भार को, सकते तुम्हीं उतार।।
तो वहीं ये माता-पिता को भी उच्च स्थान पर रखते हैं। और ये लिखकर
मात-पिता हैं देव सम, इनके जैसा कौन।
मंदिर के सब देवता, जाने कब से मौन।।
अपने शब्द-कौशल से पाठक का मन मोह लेते हैं।
प्रेम के दोहों में जहाँ समर्पण है, वहीं सत्यता भी , कवि ने कल्पना की दुनिया से दूर रहकर कटु-यथार्थ की अभिव्यक्ति में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते जब व्यंगात्मक दोहों पर मेरा मन रूका, तो सहसा ये विचार कौंधा कि गज़ब की लेखनी है कवि की, हर भाव को इतनी सफलता के साथ रचा है कि पाठक मंत्रमुग्ध रह जाए। एक और उदाहरण देखिए –
उन्हें समझना है कठिन, मिला विरल मस्तिष्क।
आत्म-मुग्ध मानस मिला, हुआ स्वयं से इश्क।
जिस तरह दो पंक्तियों से कड़ुवे वर्तमान का परिचय करवाया है, वो निःसन्देह अविस्मरणीय हो गया। एक दोहा देखिए –
भिंची हुई थी मुट्ठियाँ, तीखे नयन तरेर।
अपनी ही छाया खड़ी, सम्मुख जैसे गैर।।
मेरे विचार से प्रसून साहब के दोहे सुगठित, परिपक्व तथा कथ्य अलंकारों के समुचित प्रयोग से सुसज्जित, आकर्षक बिंब योजना, व्यंग, स्पष्टवादिता , प्रांजल, संस्कारित भाषा के साथ साहित्य के एक उज्जवल रूप का दर्शन कराते हैं।
कोहनूर वाली चमक, मुख पर रखना यार।
जीतेगें हम चुटकियों, में सारा संसार।
जैसे दोहों से सजी अति उत्कृष्ट पुस्तक हेतु कवि आदरणीय प्रसून साहब को हार्दिक एवं शुभकामनाएँ।
सादर,
रश्मि लहर,
लखनऊ