Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Mar 2023 · 29 min read

[पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य] भाग–7

[पुनर्जन्म, पुनरावर्तन नहीं यात्रा का अगला चरण]

माता के गर्भ में शयन करते हुये ऋषि वामदेव विचार करते हैं— ‘‘अब मैं देवताओं के अनेक जन्मों को जान चुका हूं। जब तक मुझे तत्व ज्ञान नहीं मिला था, मैं संसार में पाप कर्मों से उसी तरह घिरा था, जिस तरह पक्षी को पिंजरे में बन्द कर दिया जाता है।’’ पूर्व-जन्मों का स्मरण करते हुए ऋषि वामदेव ने शरीर धारण किया और उन्नत कर्म करते हुए स्वर्ग को पहुंच गये।
यह कथा ऐतरेयोपनिषद् के द्वितीय अध्याय के प्रथम खण्ड में है। शास्त्रकार इस अध्याय को पूर्व पीठिका में यह बताता है कि पिता के पुण्य कर्मों के निमित्त पिता का ही आत्मा पुत्र रूप में प्रतिनिधि बन कर जनम लेता है। पुत्र के जन्म लेने पर पिता के पाप कर्म कम होने लगते हैं क्योंकि कोई भी पिता अपने पुत्र को बुरे कर्म करते देखकर प्रसन्न नहीं होता, यह यही प्रयत्न करता है कि जिन बुरे कर्मों के कारण मुझे कष्ट हुये हैं, उनका प्रभाव बच्चे पर न पड़े। जितने अंश में वह बच्चे का सुधार कर सकता है, उतना वह अपना भी सुधार कर लेता है और तब उसका दूसरा जन्म अर्थात् ऐसे संकल्प लेकर जन्म होता है कि अब मैं बुरे कर्म नहीं करूंगा, जिससे संसार में शांतिपूर्वक परमात्मा का साधन करता हुआ, स्वर्ग की प्राप्ति करूंगा। यह संकल्प संस्कार बन कर उद्घटित होते हैं और जीव अपनी मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है। जैसा ऋषि ने बताया है।

पुनर्जन्म, गर्भ में इस प्रकार का संकल्प, पिता के प्रतिनिधि रूप में पिता का ही पुत्र और इन सबका हेतु कर्मफल यह सब बातें कुछ अटपटी सी लगती हैं। आज के विज्ञान बुद्धि लोगों के गले नहीं उतरती और यही कारण है कि लोग कर्मों में गुणावगुण की संधि और पाप के फल—पश्चाताप की बात अंगीकार नहीं करते। कर्मफल पर विश्वास न करने का फल ही आज पाप, अन्याय और भ्रष्टाचार के रूप में फैला है।

गरुड़ पुराण में ऐसी ही आख्यायिका आती है, जिसमें बताया गया है कि यमलोक पहुंचने पर चित्रगुप्त नाम के यम-प्रतिनिधि सामने आते हैं और उस व्यक्ति के तमाम जीवन में किये हुए कर्मों का जिन्हें वह गुप्त रीति से भी करता रहा, चित्रपट की भांति दृश्य दिखलाते हैं, यमराज उन कर्मों को देख कर ही उन्हें स्वर्ग और नरक का अधिकार प्रदान करते हैं। शास्त्रकार इसी सन्दर्भ में यह भी बताते हैं कि हनन की हुई आत्मा (अर्थात् बुरे कर्मों से उद्विग्न और अशांत मनःस्थिति) नरक को ले जाती है और सन्तुष्ट हुई आत्मा (नेक कर्मों से उल्लसित उत्फुल्ल और प्रसन्न मनःस्थिति) दिव्य लोक प्रदान करती है।

चित्रगुप्त जैसी कोई व्यवस्था का होना काल्पनिक-सा लगता है, किन्तु आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में बड़ी महत्वपूर्ण सच्चाई को ढूंढ निकाला है। डा. बी. वेन्स ने सूक्ष्म दर्शक की सहायता से यह ढूंढ़ निकाला है कि मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भरी चर्बी जैसा पदार्थ भरा होता है) के एक-एक परमाणु में अगणित रेखायें पाई जाती हैं। विस्तृत विश्लेषण करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो व्यक्ति कर्मठ, क्रियाशील, सात्विक, सबसे प्रेम और सबका भला चाहने वाले होते हैं, उनके मस्तिष्क की यह रेखायें बहुत विस्तृत और स्वच्छ थीं, पर जो आलसी, निकम्मे तथा दुष्ट प्रकृति के थे, उनकी रेखायें बहुत छोटी-छोटी थीं। मांसाहारी व्यक्तियों की रेखायें जले हुए बाल के सिरे की तरह कुण्ठित और लुंज पुंज थीं।

मस्तिष्क के विश्व प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक डा. विल्डर पेनफील्ड ने मस्तिष्क में एक ऐसी पट्टी का पता लगाया है, जो रिकार्डिंग पद्धति के आधार पर काम करती है उनके अनुसार यह पट्टी मस्तिष्क के उस भाग में है, जिसके बारे में अभी तक कुछ विशेष पता नहीं लगाया जा सका।

स्मरण की प्रक्रिया के बारे में डा. विल्डर पेनफील्ड का कहना है कि वह काले रंग की दो पट्टियों में निहित है। वह पट्टियां लगभग 25 वर्ग इन्च क्षेत्रफल की होती हैं। मोटाई इन्च के दसवें भाग जितनी होती है। दोनों पट्टियां मस्तिष्क के चारों ओर लिपटी रहती हैं, यह पूरे मस्तिष्क को ढके रहती हैं। इन्हें ‘टम्पोरल कोरटेक्स’ कहा जाता है और यह कनपटियों के नीचे स्थित हैं। जब कोई पुरानी बात याद करने का कोई प्रयत्न करता है, तो स्नायुओं से निकलती हुई विद्युत धारायें इन पट्टियों से गुजरती हैं, जिससे वह घटनायें याद आ जाती हैं। डा. पेनफील्ड ने मिरगी के कई रोगियों के मस्तिष्क का आपरेशन करते समय इन पट्टियों में कृत्रिम विद्युत-धारायें प्रवाहित कीं और यह पाया कि रोगियों की काफी पुरानी स्मृतियां ताजी हो गईं। एक रोगिणी को इस पट्टी पर हल्का करेन्ट दिया गया, तो वह एक गीत गुन-गुनाने लगी। वह गीत उसने पांच वर्ष पहले सुना था। करेंट हटाते ही वह गीत फिर भूल गई। फिर करेन्ट लगाया तो फिर गुन-गुनाने लगी।

अब डा. पेनफील्ड स्वयं भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जागृत अवस्था में व्यक्ति जैसी भी घटनायें देखता, सुनता, करता रहता है, उनका विस्तृत रिकार्ड मस्तिष्क में बना रहता है यदि कुछ नये प्रयोग विकसित किये जा सकें, तो मस्तिष्क को इतना सचेतन बनाया जा सकेगा कि वह बहुत काल की स्मृतियों को ताजा रख सकेगा। तब सम्भवतः इस जीवन से अनन्तर पूर्व-जन्मों की स्मृतियों की उलट सम्भव हो जायगी।

वह थी खोज किन्तु कर्मफल उससे भी बहुत कठोर, सुनिश्चित और अंतर्व्यापी है इसलिये उस पर शीघ्र तो लोग विश्वास नहीं करते पर यह सारा संसार उससे प्रभावित है और एक दिन सारा संसार उसे मानने को और सत्कर्म करने को विवश होगा। उत्पीड़न और अत्याचार के सभी कर्म मनुष्य को कई जन्मों तक सताते हैं। उनका परिमार्जन आसानी से नहीं हो पाता।

यहां एक बात समझ लेनी चाहिए कि मन भी एक प्रकार का सूक्ष्म विद्युत है। और वह मस्तिष्क को उस पट्टी में जहां याद-दस्ते छिपी है, अपने आप चक्कर लगाया करता है, इस चक्कर से उसकी मानसिक बनावट के अनुरूप जैसे अच्छे-बुरे विचार होते हैं, वह उभरते हैं और मनुष्य उसी प्रवाह में काम करने लगता है। उसे प्रकृति की प्रेरणा मानकर कुछ लोग यह भूल करते हैं कि जो कुछ गन्दा, फूहड़ विचार उठा वही करने लगते हैं, पर जो लोग कर्मफल पर विश्वास कर लेते हैं, वे बुराइयों और बुरे विचारों के प्रति सावधान रहने लगते हैं और जीवन में अच्छाइयों का प्रसार करते हुए प्रसन्न रहने लगते हैं।

डा. पेनफील्ड के यहां एक मिरगी का रोगी आता था। उसे मिरगी आने से पहले एक भयानक सपना आया करता था कि वह किसी उजाड़ और डरावने मकान के दरवाजे पर खड़ा है। कोई उल्लू भयंकर आवाज में बोलता है। वह डर कर दरवाजा खोलने का प्रयत्न करता है। उसे मालूम था कि दरवाजा खुलते ही कोई ऐसा भयानक दृश्य सामने आता है कि उसे देखते ही उसे मिरगी आ जाती है, इसलिए वह बहुत प्रयत्न करता कि दरवाजा न खोले, पर अज्ञान शक्ति उसे वैसा करने को विवश कर देती और उसे मिरगी आ जाती, जिसमें पड़ा वह घन्टों तड़पता रहता।

सचेत अवस्था में भी जब इस रोगी को डॉक्टर करेन्ट लगाते तो उसके मुख मण्डल पर भय की रेखायें छा जातीं। डॉक्टर ने उस स्थान का पता लगा लिया और उतने अंश का आपरेशन करके निकाल दिया, जिससे रोगी अच्छा हो गया।

विज्ञान की यह शक्ति कर्मफल पर विस्तृत प्रभाव डालने वाली है। हम जिसे मन कहते हैं, वह एक प्रकार की विद्युत शक्ति है और वह उस स्मृति पट्टी पर अपने आप ही घूमता रहता है। स्वप्नावस्था में भी यह क्रिया बन्द नहीं होती, उसे जहां पूर्व-जन्मों की उन स्मृतियों से गुजरना पड़ता है, जिसमें उत्पीड़न, भयंकरता, दण्ड, छटपटाहट, चोरी, दुष्टता जैसे कुकर्मों की रेखायें होती हैं, तो उसे तीव्र वेदना और अकुलाहट होती है। यही नहीं उस व्यक्ति में हीनता का अन्तर्भाव बढ़ता रहता है और ऐसा व्यक्ति जीवन में साधन और सुविधाएं रहते हुए भी सुखी और शान्त नहीं रहता।

मिरगी के उस रोगी के बारे में यदि यह कहा जाये कि उसने पूर्व जन्म में धन या और किसी लोभ में किसी के घर का दरवाजा खोल कर किसी की हत्या की होगी, तो अतिशयोक्ति न होगी। ऐसे भयंकर दृश्यों के अंकन भी वैसे ही क्षिप्र, टेढ़े-मेढ़े और भयानक होते हैं, जब वह स्मृति उस व्यक्ति को आती होगी तो भय से मूर्छा आ जाती होगी। शरीर की छोटी से छोटी खुजली से लेकर दमा, श्वांस क्षय, पक्षाघात, कुष्ठ आदि के कारण शरीर के विजातीय द्रव्य भले ही कहे जायें पर उन विजातीय द्रव्यों के उत्पादन का कारण मन और मन को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल ही कहना अधिक तर्क-संगत है। कोई भी व्याधि एवं पीड़ा कर्मफल के अतिरिक्त नहीं हो सकती। फिर वे इस जन्म के हों या पूर्व जन्म के।

भगवान अपनी इच्छा से किसी को दण्ड नहीं देते। कर्मफल ही दण्ड देते हैं। भगवान तो बार-बार मनुष्य-जीवन के रूप में जीव को वह अवसर प्रदान करते रहते हैं, जिससे वह विगत पापों का प्रायश्चित्त कर अपने शुद्ध-बुद्ध और निरंजन-स्वरूप को प्राप्त कर ले जैसा कि ऋषि वामदेव ने अपने को उसी प्रकार पाप से जीवन्मुक्त कर लिया, जैसे सांप केचुली से छूट जाता है और परम स्वतन्त्रता अनुभव करने लगता है।

‘साइकिकल रिसर्च सोसाइटी’ तथा परामनोविज्ञान की अन्य शोध-संस्थाओं ने अपनी खोजों से पुनर्जन्म-प्रतिपादक अनेक अद्यतन-आधार जुटाये हैं। इनसे जहां जीवन के बारे में भारतीय तत्वदर्शियों की मान्यताएं खरी सिद्ध हुई हैं, वहीं पुनर्जन्म और कर्मफल सम्बन्धी प्रतिपादन भी नये सिरे से प्रमाणित हुआ है? तथा संस्कारों का सातत्य और क्रमबद्धता सामने आयी है।

पुनर्जन्म का अभिप्राय यह नहीं कि फिर नये सिरे से जीवन-विकास में जुटाना होगा। यदि हर बार व्यक्ति वैसी ही आन्तरिक स्थिति में पैदा हो। मन, बुद्धि, अन्तःकरण के नये सिरे से विकास हेतु प्रयास शुरू करना पड़े। मृत्यु के पूर्व तक अपने गुणों और अपनी क्षमताओं को चाहे जितना बढ़ा लेने और परिपक्व बना लेने पर भी अगले जीवन में यदि उनकी कोई उपयोगिता न रहे, तब पुनर्जन्म होने पर भी उसका कोई दार्शनिक और नैतिक महत्व नहीं रह जायेगा। पुनर्जन्म का अर्थ भौतिक तत्वों के एक निश्चित क्रम-संघात का पुनरावर्तन हो और स्मृति-कोषों का कोई अंश-विशेष ही उसका एकमात्र सातत्य—सूत्र हो, तब पुनर्जन्म की प्रक्रिया की मानव-जीवन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रह जायेगी। किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अगले जीवन में चेतना का वह स्तर जन्मतः उपलब्ध होता है, जो वर्तमान जीवन में विकसित कर लिया गया हो। इस प्रकार प्रगति का तार टूटता नहीं और मानवी चेतना सतत विकसित होती चलती है।

भौतिक दृष्टि से पुनर्जन्म एक पुनरावर्तन जैसा ही प्रतीत होने पर भी, वह वस्तुतः जीवन-यात्रा का अगला चरण है। विकास का अगला क्रम है। पुनर्जन्म सतत गतिशीलता का अगला आयाम है। शरीर की दृष्टि से तो उस नये जीवन में भी शैशव, यौवन, जरा, मृत्यु का क्रम पूर्ववत ही रहता है। देह-धर्म तो उसी क्रम से चलता है। किन्तु मन, बुद्धि अन्तःकरण में समायी चेतना जिस स्तर तक विकसित हो जाती है वहां से पीछे नहीं लौटती प्रयत्न और साधन के अनुरूप आगे ही बढ़ती है। पाप हो या पुण्य, उसका फल उसकी मात्रा व गुण के आधार पर ही मिलता है। न तो कोई भी कर्म बिना किसी प्रतिक्रिया—परिणाम के रहता और न ही किसी भी कर्म का परिणाम अनन्त होता है। जहां कर्मफल भोगना अनिवार्य है; वहीं यह भी निश्चित है कि पाप हो या पुण्य, अपनी गुरुता या लघुता के अनुसार उसके परिणामों का भी अन्त होता है। तब अपनी अन्तःश्चेतना में संचित-संकलित स्मृतियों, गुण धर्म, संस्कारों और सामर्थ्य के साथ आत्मा पुनः नये शरीर में अवतरित होती है। विगत जीवन में अर्जित-उपलब्ध शिक्षाएं—दिशाएं नये जीवन की प्रवृत्ति—प्रेरणाएं बनती हैं और विकास पथ पर आगे बढ़ने के आधार प्रस्तुत करती हैं। इसीलिए मनुष्य-योनि को कर्मयोनि कहा गया है। प्रत्येक मनुष्य जहां अपनी अन्तःप्रकृति के गुण-धर्म-स्वभाव से प्रेरित होता है, वहीं वह अपने विवेक से इन प्रेरणाओं पर अनुशासन-नियन्त्रण भी स्थापित कर सकने में समर्थ है। तपश्चर्या, साधना द्वारा वह अपनी अन्तःप्रकृति का परिष्कार कर सकने, उसे नयी विशेषताओं—विभूतियों से सम्पन्न बना सकने में भी सक्षम है पुनर्जन्म के शास्त्रीय सिद्धान्तों से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि कोई प्राणी बार-बार इसी जगत में जन्म ले, यह आवश्यक नहीं। अनन्त ब्रह्माण्ड के किसी भी ऐसे लोक में वह जन्म ग्रहण कर सकता है, जहां जीवन्त प्राणियों का निवास हो और जो लोक उसकी सूक्ष्म इन्द्रियों तथा चेतना-स्तर के अनुरूप हो।

पुनर्जन्म के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उससे इस जन्म में अर्जित विकसित प्रवृत्तियों का प्रभाव अगले जीवन में भी प्रमाणित होता है। पुराणों में पुनर्जन्म की जो कथाएं वर्णित हैं, उनमें भी चेतना-स्तर का सातत्य ही दिग्दर्शित है। संस्कारों का महत्व प्रतिपादित करने वाली ये पुराकथाएं हमारे मनीषी पूर्वजों ने इसी उद्देश्य से संकलित की हैं, जिससे व्यक्ति कर्मफल की अनिवार्यता के सिद्धान्त को भलीभांति समझकर सत्प्रवृत्तियों का तत्काल सत्परिणाम न दिखने पर भी हतोत्साहित न हो और श्रेयस के पथ पर पुरुषार्थ, कौशल, साहस एवं धैर्य के साथ बढ़ता रहे।पद्मपुराण के अनुसार सोमशर्मा नामक तपस्वी साधक हरिहर-क्षेत्र में साधना-निरत थे। उनके जीवन का अन्तिम समय निकट था, तभी दैत्यों की एक टोली वहां पहुंची और भयानक उपद्रव वहां किया। इस प्रकार अन्त काल में उनके स्मृति-पटल पर दैत्यों की यह छवि अंकित हो गई सात्विक प्रकृति के साधक वे थे ही, उनका सूक्ष्म शरीर मृत्यु के तत्काल बाद दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु में प्रविष्ट हुआ। प्रहलाद के रूप में वे प्रकट हुए। जन्मतः ही उनकी अन्तश्चेतना परिष्कृत-उदात्त थी। दैत्य-दुष्प्रवृत्तियों के प्रति उनमें प्रबल विरोध भाव भी था। यही बालक प्रहलाद अपनी तपश्चर्या से भगवान के नृसिंहावतार का कृपा भाजन और दानवराज हिरण्यकशिपु के नाश का कारण बने।
स्कन्दपुराण में बलि की कथा के द्वारा सत्प्रवृत्तियों के क्रमिक अभिवर्धन का सत्परिणाम गिनाया गया है। देव ब्राह्मण निअंक जुआरी था, पर साथ ही उसमें दान की उदार प्रवृत्ति भी विद्यमान थी। एक बार जब जुए में उसने पर्याप्त धन कमा लिया, तो मद्यपान कर एक वेश्या के घर की ओर चला। मार्ग में मूर्छित हो गिर पड़ा। होश आने पर ग्लानि और प्रायश्चित्त-भावना से वह भर उठा। उसने अपने धन का एक अंश शिव-प्रतिमा को समर्पित कर दिया। उस दिन से शिवत्व के प्रति यह आकर्षण उसमें उभरता ही गया। मृत्यु के उपरान्त उसे अपने अल्प पुण्य कर्मों के फलस्वरूप तीन घड़ी के लिए स्वर्ग का शासन प्राप्त हुआ। तब तक सत्प्रवृत्तियों का महत्व वह समझ चुका था। स्वर्ग के भोगों की ओर उसकी रंचमात्र रुचि नहीं जगी। उल्टे इस पूरी तीन घड़ी तक वह स्वर्ग की बहुमूल्य वस्तुएं सत्पात्र श्रेष्ठ ऋषियों को लगातार दान करता रहा। इससे उसकी पुण्य-प्रवृत्ति और गहरी हुई। अगले जन्म में वह महादानी बलि बना।

आधुनिक अनुसंधानों ने भी संस्कारों के महत्व को भी प्रतिपादित किया है। फ्रांस में जे-दम्पत्ति के यहां एक बच्ची पैदा हुई—थिरीज गे। तीन महा की आयु में उसने बोलना शुरू किया। परन्तु अपने जीवन में पहला शब्द उसने अपनी मातृ-भाषा फ्रेंच में नहीं, एक ऐसी भाषा में बोला, जो न तो मां जानती थीं, न पिता। उन लोगों ने वह शब्द डायरी में अपनी बुद्धि से नोट किया—‘‘अहस्यपाह’’। वे इस विचित्रता पर हंसते रहे।

परामनोवैज्ञानिक मेयर ने अपनी पुस्तक ‘‘ह्यूमन पर्सनालिटी’’ में अमरीका की पेन्सल्वेनिया यूनिवर्सिटी में असीरियन-सभ्यता के विशेषज्ञ प्राध्यापक हिल प्रेचट द्वारा बेबीलोनिया—साम्राज्य की एक मणि पर खुदे अक्षरों को सहसा पूर्वजन्म की स्मृति से पढ़ लेने का वर्णन किया है। इन प्राध्यापक को उस लिपि व भाषा का ज्ञान नहीं था। अकस्मात् दिवा स्वप्न की तरह उनके दिमाग में वह अर्थ कौंध गया, जो बाद में उस लिपि के विशेषज्ञों द्वारा सही बताया गया। इससे यह अनुमान किया गया कि ये प्राध्यापक पूर्व जन्म में असीरियाई नागरिक थे और उसका संस्कार इतना गहरा था कि इस बार अमरीका में जन्म लेने पर भी वे असीरियाई—सभ्यता के ही अध्ययन की ओर अधिक प्रवृत्त हुए।

इस प्रकार यद्यपि उनके पिछले जन्म की स्थिति ने इस जीवन में उनके विषय विशेष के विद्वान प्राध्यापक बनने के साधन जुटाये, तो भी यह दक्षता जन्मजात नहीं थी। जन्म से तो उस दिशा में प्रवृत्ति-विशेष ही साथ थी। अन्तरंग में उमड़ रही उस प्रवृत्ति ने ही सफलता का पथ-प्रशस्त किया। वस्तुतः प्रवृत्तियां और संस्कार ही जन्म-जन्मान्तर के साथी-सहयोगी होते हैं।

शास्त्र कहता है—‘‘अणोरणीयान् महतोमहीयान’’ अर्थात् यह आत्मा छोटे से भी छोटा और इतना विराट है कि उसमें समग्र सृष्टि खप जाती है। अणु के अन्दर समाविष्ट आत्मा की सत्यता का प्रमाण यही है कि जब वह पुनः किसी प्राणधारी के दृश्य रूप में विकसित होता है तो अपने सूक्ष्म (नाभिक शरीर) के ज्ञान की दिशा में बढ़ने लगता है इसी बात को गीता में भगवान् कृष्ण ने इस प्रकार कहा है—तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च ततो भूमः संसिद्धौ कुरुनंदन ।।अर्थात्—आत्मा पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि संयोग को अर्थात् समत्व बुद्धि-योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और तब हे अर्जुन! उस संस्कार के प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।

200 वर्ष पूर्व जर्मनी में हानरिस हानेन्केन का जन्म हुआ यह बालक तीन वर्ष का था तभी उसने जोड़, बाकी, गुणा भाग लगाना और हजारों लैटिन मुहावरे सीख लिये थे। इसी अवस्था से उसने फ्रैंच भाषा और भूगोल का अच्छा ज्ञान प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया था। इस विलक्षण प्रतिभा का कारण वैज्ञानिक नहीं जान पाये। इसी तरह साइबरनेटिक्स के रचनाकार वीनर ने पांच वर्ष की आयु में ही विज्ञान में रुचि लेनी प्रारम्भ कर दी थी, वह अठारह वर्ष के लड़कों के साथ विज्ञान पढ़ता था। चौदह वर्ष की अत्यल्प आयु में वीनर ने विज्ञान की उपाधि प्राप्त कर ली। गेटे नौ वर्ष की आयु में कविताएं लिखने लगा था, जो आज बी.ए. और एम-ए. की कक्षाओं में पढ़ाई जाती हैं, बायरन, स्काट और डारविन ऐसे ही विलक्षण बौद्धिक क्षमता वाले बच्चे थे। पास्काल ने पन्द्रह वर्ष की आयु में ही विज्ञान सम्बन्धी रचना प्रकाशित कर दी थी, जिसमें उसने सौ से भी अधिक नये प्रमेय सिद्ध कर दिये थे।

ऐसी विलक्षण और आध्यात्मिक प्रतिभा सम्पन्न बच्चों के उदाहरण भारतवर्ष में सर्वाधिक विद्यमान हैं। उन सब में विलक्षण चित्रकूट से दस मील दूर जलालपुर नामक ग्राम में एक धर्म-प्राण ब्राह्मण परिवार में जन्मी बालिका है। उसका नाम है, सरोजबाला। पिता का नाम पं. श्यामसुन्दर जी, इन दिनों सूरत में कार्य करते हैं। इस बालिका के दो व्यक्तित्व हैं—एक तो साधारण बालिका और दूसरा अत्यन्त विद्वान् और प्रतिभा सम्पन्न बालिका का। जब तक वह घर में रहती, वह बालकों की-सी चपलता, उछल-कूद, आमोद-प्रमोद किन्तु जैसे ही वह सभा-मंच पर पहुंचती है, गीता, रामायण, महाभारत, वेदान्त, मनुस्मृति, योग और भक्ति के समन्वय से ऐसे धारा-प्रवाह प्रवचन करती है कि सुनने वाले मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं। सरोजबाला तीन वर्ष की थी, तभी से अपने को राजस्थान के एक ब्राह्मण परिवार के मृतक के रूप में घोषित करने लगी थी। 1962 में स्व. डा. रोजन्द्रप्रसाद (उस समय के राष्ट्रपति) के समक्ष कानपुर में उसने प्रवचन किया था, जिसको सुनकर वे बहुत प्रभावित हुए थे। अगले वर्ष से ही वह नियमित रूप से सार्वजनिक समारोहों में प्रवचन करने लगी थी। उसके असीम ज्ञान, शुद्ध उच्चारण, प्रतिभा-पूर्ण शैली और भाव-भंगिमाओं को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि यह ज्ञान इसी जीवन का विकास है।

प्रतिभायें ! पूर्वजन्म का संचित ज्ञान—
संसार में ऐसी विलक्षण प्रतिभाएं समय-समय पर उत्पन्न होती रहती हैं जिनकी बौद्धिक असाधारणता को देखकर अवाक् रह जाना पड़ता है। शरीर विकास की तरह बौद्धिक विकास का भी एक क्रम है। समय और अवधि के अनुरूप—साधन-सुविधाओं के सहारे कितने ही मनुष्य अपनी प्रतिभा को निखारते, बढ़ाते देखे गये हैं। पुरुषार्थ और परिस्थितियों के सहारे उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंचते भी अनेकों को देखा जाता है पर इस स्वाभाविक प्रगति-प्रक्रिया का उल्लंघन करके कई बार ऐसी प्रतिभाएं सामने आती हैं जिनके विकास क्रम का कोई बुद्धिगम्य कारण दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं का कारण ढूंढ़ने के लिए हमें पूर्व संचित ज्ञान-सम्पदा का प्रतिफल मानने के अतिरिक्त और कोई समाधान मिल ही नहीं सकता।

विख्यात फ्रांसीसी बालक ‘जान लुई कार्दियेक’ जब तीन मास का था तभी अंग्रेजी वर्णमाला का उच्चारण कर लेता था। तीन वर्ष का होते-होते वह अच्छी लैटिन पढ़ने और बोलने लगा। पांच वर्ष की आयु में पहुंचने तक उसने फ्रेंच, हिब्रू और ग्रीक भी अच्छी तरह सीख लीं। छह वर्ष की आयु में उसने इतिहास, भूगोल और गणित पर भी आश्चर्यजनक अधिकार प्राप्त कर लिया। सातवें वर्ष में वह संसार छोड़कर चला गया।

विलियम जेम्स सिदिस ने सारे अमेरिका को आश्चर्यचकित कर दिया। दो वर्ष की आयु में वह धड़ल्ले की अंग्रेजी बोलता, पढ़ता और लिखता था। आठ वर्ष की आयु में छह विदेशी भाषाओं का ज्ञाता था जिनमें ग्रीक और रूसी भाषाएं भी सम्मिलित थीं, जिनका उस देश में प्रचलन नहीं था। ग्यारह वर्ष की आयु में उसने उस देश के मूर्धन्य विद्वानों की सभा में चौथे ‘आयाम’ की सम्भावना पर एक विलक्षण व्याख्यान दिया उस समय तक तीसरे आयाम की बात ही अन्तिम समझी जाती थी।
सिदिस की यह विलक्षणता किशोरावस्था आने पर न जाने कहां गायब हो गई। वह अति सामान्य बुद्धि का व्यक्ति रह गया।

इंग्लैण्ड के डेवोन स्थान में एक पत्थर तोड़ने वाले श्रमिक का दो वर्षीय पुत्र जार्ज, गणित में अपनी अद्भुत प्रतिभा प्रदर्शित करने लगा। चार वर्ष की आयु में उसने गणित के अत्यन्त जटिल प्रश्नों का दो मिनट में मौखिक उत्तर देना आरम्भ कर दिया जिन्हें कागज, कलम की सहायता से गणित के निष्णात आधा घण्टे से कम में किसी भी प्रकार नहीं दे सकते थे। इसकी प्रतिभा भी दस वर्ष की आयु में समाप्त हो गई। फिर वह सामान्य लड़कों की तरह पढ़ कर कठिनाई से सिविल इंजीनियर बन सका। फिल्मी दुनिया में तहलका मचाने वाला बाल अभिनेता विलियम हेनरी वेट्टी बाल्यकाल से ही अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देने लगा। उसके अभिनय ने सारे यूरोप का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। 11 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह फिल्म दर्शकों का सुपरिचित प्रिय-पात्र बन गया। ऐसा ही एक दूसरा बालक था लन्दन का कवेंट गार्डन, उसका अभिनय देखने के लिए आकुल भीड़ को हटाने के लिए एकबार तो सेना बुलानी पड़ी थी। उसे इतना अधिक पारिश्रमिक मिलता था जितना पाने का अन्य किसी कलाकार को सौभाग्य न मिला। एकबार तो ‘हाउस आफ कामन्स’ का अधिवेशन इसलिए स्थगित करना पड़ा कि उस दिन कवेट गार्डन द्वारा हेमलेट का अभिनय किया जाना था और सदस्यगण उसे देखने के लिए आतुर थे।

जर्मन की बाल प्रतिभा का कीर्तिमान स्थापित करने वालों में जान फिलिफ वैरटियम को कभी भुलाया न जा सकेगा। उसने दो वर्ष की आयु में ही पढ़ना लिखना सीख लिया। छह वर्ष की आयु में वे फ्रेंच और लैटिन भी धारा प्रवाह रूप से बोलता था। सात वर्ष की आयु में उसने बाइबिल का ग्रीक भाषा में अनुवाद करना आरम्भ कर दिया। सात वर्ष की आयु में ही उसने अपने इतिहास, भूगोल और गणित सम्बन्धी ज्ञान से तत्कालीन अध्यापकों को अवाक् बना दिया। सातवें वर्ष में ही उसे बर्लिन की रायल एकेडमी का सदस्य चुना गया तथा डॉक्टर आफ फिलॉसफी की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह भी अधिक दिन नहीं जिया। किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते वह इस संसार से विदा हो गया।

अत्यन्त छोटी आयु में विलक्षणता का परिचय देने में समस्त विश्व इतिहास को पीछे छोड़ देने वालों में लुवेक जर्मनी में उत्पन्न हुआ बालक फ्रेडरिक हीनकेन था। वह सन् 1721 में जन्मा। जन्मने के कुछ घण्टे के बाद ही वह बातचीत करने लगा। दो वर्ष की आयु में बाइबिल के सम्बन्ध में पूछी गई किसी भी बात का विस्तार पूर्वक उत्तर देता था और बताता था कि वह प्रकरण किस अध्याय के किस मन्त्र में है। इतिहास और भूगोल में उसका ज्ञान अनुपम था। डेन्मार्क के राजा ने उसे राजमहल में बुलाकर सम्मानित किया। तीन वर्ष की आयु में उसने भविष्यवाणी की कि अब मुझे एक वर्ष ही और जीना है। उसका कथन अक्षरशः सही उतरा चार वर्ष की आयु में वह इस संसार से विदा हो गया।

जो लोग पुनर्जन्म का अस्तित्व नहीं मानते। मनुष्य को एक चलता-फिरता पौधा भर मानते हैं। शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मरण के साथ ही उसका अन्त मानते हैं वे इन असमय उदय हुई प्रतिभाओं की विलक्षणता का समाधान नहीं ढूंढ़ पायेंगे। वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी सभी अपने प्रकृति क्रम से बढ़ते हैं, उनकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विशेषताएं समयानुसार उत्पन्न होती हैं। फिर मनुष्य के असमय में ही इतना प्रतिभा सम्पन्न होने का और कोई कारण नहीं रह जाता कि उसने पूर्व जनम में उन विशेषताओं का संचय किया हो और वे इस जन्म में जीव चेतना के साथ ही जुड़ी चली आई हो।

लार्ड मैकाले 19 वीं शताब्दी के विश्व-विख्यात ब्रिटिश इतिहास लेखक ने इंग्लैंड का इतिहास आठ जिल्दों में लिखा। उसके लिये उन्होंने दूसरी पुस्तक उठाकर नहीं देखी। सैकड़ों घटना की तिथियों और घटना से सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम उन्हें जबानी याद थे। यह नहीं स्थानों के परिचय, दूसरे विषय और अब तक जितने भी व्यक्ति उनके जीवन में उनके सम्पर्क में आ चुके थे, उन सब के नाम उन्हें बाकायदा कण्ठस्थ थे। लोग उन्हें चलता फिरता पुस्तकालय कहते थे।

पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पण्डित था, उसने ग्रीक भाषा की सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुख जबानी याद कर लिये थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों अलमारियां और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थीं। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न केवल प्रत्येक पुस्तक का ठिकाना बता देते थे वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी दे देते थे। पास्काल 15 वर्ष की आयु में एक, प्रामाणिक विज्ञान ग्रन्थ लिखकर प्रकाशित करा चुका था। गेटे ने 9 वर्ष की आयु में यूनानी, लैटिन और जर्मन भाषाओं में कविताएं लिखना आरम्भ कर दिया था।

लिथूयानिया निवासी रैवी एलिजा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसे विचित्र मानसिक शक्ति प्राप्त थी; पर उस पर उसका नियन्त्रण न होने के कारण वह शक्ति भी जीवन में कुछ काम न आई। उसने अपने जीवन में दो हजार से अधिक पुस्तकों को एक बार ढ़कर याद कर लिया था। कोई भी पुस्तक लेकर किसी भी पन्ने को खोल कर पूछने पर वह उसके एक एक अक्षर को दोहरा देता था। उसका मस्तिष्क सदैव क्रियाशील रहता था इसलिये पुस्तकालय के बाद भी उसे अपने हाथ में पुस्तक रखनी पड़ती थी, दूसरे कामों से चित्त हटते ही वह पुस्तकें पढ़ने लग जाता था।

पिल्सवरी अमेरिका के हैरी नेल्सन को भी ऐसी विलक्षण मानसिक शक्ति प्राप्त थी। उसे शतरंज का जादूगर कहा जाता था। वह एक साथ बीस शतरंज के खिलाड़ियों की चाल को याद रख सकता था। बीस-बीस खिलाड़ियों से खेलते समय कई बार उसे मानसिक थकावट होने लगती थी, उस थकावट को उतारने के लिये वह ताश भी खेलने लगता था।

जर्मनी के राजा की एक लाइब्रेरी प्रसा में थी। इसके लाइब्रेरियन मैथुरिन बेसिरे की आवाज सम्बन्धी याददाश्त अद्भुत थी। एक बार उसकी परीक्षा के लिये बारह देशों के राजदूत पहुंचे और उन्होंने अपनी-अपनी भाषा में बारह वाक्य कहे। जब वे चुप हो गये तो बेसिरे ने बारहों भाषाओं के बारहों वाक्य ज्यों के त्यों दोहरा दिये। वह एक बार में ही कई व्यक्तियों की आवाज सुनता रहता था और आश्चर्य यह था कि सब की बात उसे अक्षरशः याद होती जाती थी। ऐसी विलक्षण प्रतिभा फ्रांस के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ लिआन गैम्बाटा और रिचार्ड पोरसन नामक ग्रीक पण्डित को भी उपलब्ध थी।

आत्मा के गुण हैं सूक्ष्मता, इन्द्रियाधिष्ठाता, अणु रूप, चेतनता अजर और अमर इन गुणों की पुष्टि करने वाली और जीवात्मा के अनेक योनि शरीरों में आवागमन की पुष्टि करने वाली महत्वपूर्ण घटना—‘ह्यूमन परसनैलिटी भाग 1’ में इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा. मायर्स ने उद्धृत किया है। 18 वर्षीया अमरीकन लड़की ‘‘एनो विन्सर’’ के मस्तिष्क में विक्षिप्तता आ गई उस समय वह कई बार तो अपने आपको क्वेकर सम्प्रदाय का सदस्य बताती और उस समय जो भाषण देती वे ठीक क्वेकर दर्शन के भाषण होते। उसने अपने आपको एकबार इंग्लैंड की रानी ऐन बताया और उस समय जो बातें कहीं पता लगाने पर मालूम हुआ कि वे सब सच थीं।

यह निश्चेष्ट अवस्था में आंखें बन्द करके कोई भी पुस्तक पढ़ सकती थी। बहुत समय तक उस पर परीक्षण करने वाले डा. ‘‘आयरा बैरोज’’ ने इस अवस्था में उसे अंधेरे कमरे में एक सुई व धागा दिया और उस सुई में धागा पिरोने के लिये कहा तो उस ने बड़ी आसानी से धागा पिरो कर यह सिद्ध कर दिया कि आत्मा स्वयं प्रकाश पूर्ण है, उसे देखने के लिये आंखें आवश्यक नहीं आंख, कान, नाक, आदि सब उसकी अतीन्द्रिय शक्तियां हैं। वह दूसरे कमरे में रखी घड़ी में क्या बजा है यह बताकर सिद्ध करती थी कि आत्मा के लिये करोड़ों मील दूर तक देख सकने में भी कोई बाधा नहीं। वह उल्टी किताब पढ़ लेती थी और सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि वह सिर के ऊपर पुस्तक खोलकर जहां हिन्दू चोटी रखते हैं उस स्थान से पुस्तक पढ़ देती थी मानो चोटी का स्थान आंख रही हो।

यह लड़की सिर के बल एक हाथ के बल खड़ी हो जाती, कभी अपने को कुत्ता कहती और इस तरह भौंकने लगती कि पड़ौसी कुत्ते के भ्रम में पड़कर स्वयं भी भौंकने लगते। उस स्थिति में वह पानी नहीं पीती, ठीक कुत्तों की तरह ही जीभ से चाटती। उसने ‘‘हेस्टी पुडिंग’’ पुस्तक कभी भी पढ़ी नहीं थी तो भी उसके अध्याय के अध्याय और वह भी सोती हुई अवस्था में अपने दाहिने हाथ से लिख देती। लतीनी फ्रांसीसी भाषायें उसने कहीं भी पढ़ी नहीं थी पर लिख भी लेती और बोल भी लेती थी।

संस्कार और अमुक्त वासना—
पकाये मांस की पहली कटोरी जैसे ही बच्चे के सामने रखी गई, उसने भोजन करने का वह स्थान ही छोड़ दिया। फिर मां के लाख प्रयत्न करने भी बच्चे ने उस दिन भोजन नहीं किया। उसने दृढ़तापूर्वक बताया—‘‘मांस वैसे ही घृणित खाद्य है पर वह जिस तरह जीवों का उत्पीड़न करके निकाला जाता है, उस कारण तो किसी भी दृष्टि से स्पृश्य नहीं रह जाता। उससे दुर्गुण बढ़ते हैं। मेरे लिये दूध और फल ही काफी है। फिर मेरे आगे मांस लाया गया तो मैं तुम लोगों के साथ नहीं रहूंगा।’’
अमेरिका जहां छोटी आयु से ही बच्चों को मांस खाना होता है। वहां बिना किसी पूर्व शिक्षा और ज्ञान के बच्चे का मांस के दुर्गुण के प्रति यह व्याख्यान आश्चर्यजनक ही था। मां ने यह बात लड़के के पिता से भी कही। पर पिता ठहरे वैज्ञानिक—सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक। उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। सोचा लड़के जिद्दी प्रकृति के होते हैं, कोई बात हो गई होगी। बच्चा अपने आप पारिवारिक सांचे में ढल जायगा। इस आत्म आश्वासन के साथ ही वे अपने काम में जुट गये।जिस घटना-क्रम का विकास इन पंक्तियों में हो रहा है, वह कोई कहानी नहीं वरन् एक ऐसी घटना है, जिसने अमेरिका के लब्धप्रतिष्ठ जीव शास्त्री डा. ह्यूमवॉन एरिच जैसे वैज्ञानिक को भी चक्कर में डाल दिया। प्रथम अवसर था, जब उन्हें यह विश्वास करना पड़ा कि पुनर्जन्म सिद्धान्त कोरी कल्पना नहीं। डा. ह्यूमवॉन एरिच को संस्कार कोषों (जीन्स) के अध्ययन में और भी प्रगति हुई होती। पर एक अप्रत्याशित घटना ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। अब तक की शोध के आधार पर उनका विश्वास था कि शरीर रचना की तरह गुण और संस्कार भी अनुवांशिक होते हैं अर्थात् उनमें कोई अतिवाहिकता नहीं होती, ये भी जीन्स के द्वारा माता-पिता अथवा ऊपर की, ही किसी पीढ़ी से आये हुये होते हैं।लेकिन यहां जो हुआ उसने तो इस सिद्धान्त को ही काट कर रख दिया। यही लड़का जिसने एक दिन मांस को घृणित और पशु-प्रवृत्ति कह कर ठुकरा दिया था, आज पिता ह्यूम के सामने एक विचित्र भाषा में भाषण करने लगा। पहले तो पिता ने समझा कि लड़का अनर्गल प्रलाप कर रहा है। पर जब लड़का कई दिन तक उसी प्रकार टेढ़ी भाषा में बोलता रहा तो उन्होंने भाषाविदों की सहायता ली। भाषाविद ने बताया कि लड़का शुद्ध संस्कृत में बोलता है। लड़के द्वारा बोले गये वाक्यांशों का टेप-रिकार्ड कराकर उनका भाषान्तर कराया गया तो पता चला कि लड़के ने जो कुछ कहा वह अनर्गल प्रलाप न होकर प्रवाहमान भावाभिव्यक्ति थी। ऐसी अभिव्यंजना जो किसी बहुत ही शिक्षित और समझदार द्वारा की गई हो। ह्यूम एक बार तो चक्कर खा गये, बच्चे में यह प्रतिभा कहां से आ गई, यह विचार क्षमता कहां से उत्पन्न हो गई।उन्होंने अपनी पत्नी और पत्नी के सब सम्बन्धियों से पत्र डाल कर पूछा, कोई भी ऐसा न निकला जो संस्कृत भाषा जानता रहा हो। जिन कई पीढ़ियों तक उन्होंने पता लगाया, संस्कृति तो क्या हिन्दी जानने वाला भी कोई नहीं हुआ था। ह्यूम स्वयं इटेलियन थे। उनकी धर्मपत्नी भी इटेलियन थीं, आजीविका की दृष्टि से वे अमेरिका में आकर बस गये थे। संस्कृत जो उनके वंशजों में कोई जानता ही नहीं था, फिर इस बालक में यह संस्कार कहां से आ गये? क्या सचमुच पुनर्जन्म होता है। क्या सचमुच चेतना का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व भी है? जो मृत्यु के बाद भी अमर रहता हो इस तरह के अनेक प्रश्नों ने उनके मस्तिष्क में तूफान खड़ा कर दिया।समाधान उनके लड़के ने कर दिया। उसने बताया ‘‘मैं पूर्व जन्म का एक भारतीय योगी हूं। मेरा सम्बन्ध ‘नाथ’ नामक एक सम्प्रदाय से था, जो उत्तरीय पर्वतीय अंचल में पाया जाता है।’’ अपने निवास के बारे में बच्चे ने बताया—‘‘मैं कांगड़ा के समीप कुटी बनाकर एकान्त साधन किया करता था।’’योग साधना करते हुए भी मैं इच्छाओं के प्रवाह में बहता रहता। कभी भावनायें निष्काम हो जातीं तो भक्ति का आनन्द मिलता पर दूसरे ही क्षण धूप-छांह की तरह परिस्थिति बदलती और कोई इच्छा आ खड़ी होती। एक दिन की बात है, दो अमेरिकन यात्री उस पहाड़ी पर चढ़ते हुए मेरी कुटी के पास तक आ गये, पूछने पर उन्होंने अमेरिका की रंगीनी के समाचार बताये। मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मुझे लगा वहां जीवित स्वर्ग है। एकाएक इच्छा हुई कि अमेरिका जाऊं और वहां का आनन्द लूं। मेरी यह इच्छा मुझे बलात् अमेरिका के रंगीन जीवन की ओर खींचती रही। जब मेरी मृत्यु हुई, तब भी वह मन में इच्छा बनी रही।डा. ह्यूम अपने पुत्र की बातें सुनकर स्तब्ध और अवाक् रह गये। पर वे इतनी शीघ्र इन बातों पर विश्वास करने वाले न थे। लड़के के बताये कांगड़ा, नाथ सम्प्रदाय, पहाड़ियों के नाम, उस क्षेत्र के रीति-रिवाज आदि के सम्बन्ध में उन्होंने विस्तृत खोज की तो उन्हें अक्षरशः सत्य पाया। लड़का कभी भारत गया नहीं। पुस्तकों में उसने भारतवर्ष का नाम भी नहीं पढ़ा, रीति रिवाजों का तो कहना ही क्या, फिर यह बातें, उसके मस्तिष्क में कहां से आईं, वे यह कुछ न समझ सके।बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक, भाषाविद आये। बसने लड़के की बात-चीत टेप की, अलग-अलग अध्ययन किया पर निष्कर्ष निकालते समय वे सब के सब माथे पर हाथ धरे सिर खुजलाते रह गये।
एक दिन लड़के ने कहा—‘‘पिता जी! अमेरिका के दर्शन की मेंरी आकांक्षा पूर्ण हो गई है। अब मुझे मेरी मातृभूमि पहुंचा दीजिये। मैं अमेरिका में नहीं रह सकता।’’ किसी तरह मां उसे लेकर भारत जाने को तैयार हुई। विदेश यात्रा के लिए उन्होंने आवेदन-पत्र भी भर दिया। किन्तु एक दिन प्रातःकाल उठ कर जब वे अपने पुत्र के निजी कक्ष में गईं तो देखा कि मौत – मुद्रा में उस लड़के का पार्थिव शरीर पद्मासन लगाये बैठा है। उसके प्राण तो कहीं और जा चुके हैं।

जबलपुर में 18 मील दूर कालादेव ही के शिव मन्दिर के पुजारी श्री कन्हैयालाल जी चौबे के घर एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया दामोदर प्रसाद। बालक 6 वर्ष का हुआ तभी से वह रामायण, गीता बाल्मीकि रामायण, भोज प्रबन्ध, भर्तृहरिशतक आदि आर्ष ग्रन्थों के श्लोक और उनके अर्थ उच्चारण करने लगा बालक को विद्यालय में प्रवेश कराया गया तो उसकी इस विलक्षण योग्यता से अध्यापक बहुत प्रभावित हुये। उन्होंने पूछा—उसे यह ज्ञान किस तरह प्राप्त हुआ? इसका वह कुछ उत्तर नहीं दे पाया पर लड़का हमेशा हरिद्वार जाकर पढ़ने का आग्रह करता और कहता कि अपने वहां से पढ़ाई छोड़ी।

अपनी पुस्तक ‘‘रिइन्कार्नेशन’’ में विलियम वाकर एटकेन्सन ने बहुत सी ऐसी घटनायें दी हैं जो पुनर्जन्म के साथ-साथ जीव की इच्छा-शक्ति की प्रबलता को भी प्रमाणित करती हैं।
जीन्द (हरियाणा) का कालेज। एक विद्यार्थी के साथ उसकी छोटी बहिन भी कालेज चली आई। एक अध्यापक ने प्रयोगशाला में खड़ी उस बालिका से पूछा—बेटी यह शीशी में क्या रखा हैैैै जानती है? इसे छूना मत, नहीं तो जल जायेगी। अध्यापक ने कोई परीक्षा लेने के लिए नहीं पूछा था उसने तो साधारण हिदायत भर दी थी। किन्तु लड़की बोली हां-हां सर यह ‘‘कन्सन्ट्रेटेड नाइट्रिक एसिड’’ है मैं इसे नहीं छूऊंगी उसने और भी शीशियों में रखे हुए घोलों [सोलूशन्स] को सही-सही बताकर अध्यापकों और छात्रों को विस्मय में डाल दिया—इस आयु के बच्चे तो अच्छी तरह बोल भी नहीं सकते फिर इस बालिका में अंग्रेजी और विज्ञान का यह असाधारण ज्ञान कहां से आया? जो बात और अधिक विस्मय में डालती है वह यह है कि उक्त बालिका बिना किसी शिक्षा के पुस्तकें पढ़ लेती है उसे हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी का एक एफ.ए. के विद्यार्थी में जितना ज्ञान है? यह ज्ञान कहां से उपलब्ध हुआ? क्या ऐसी कोई परम्परा भी है जिसमें बच्चों की जन्म-जात प्रतिभा को विकसित किया जाता हो इन प्रश्नों पर विचार करने बैठते हैं तो उस सिद्धान्त की ही पुष्टि होती है जिसमें यह बताया जाता है कि मृत्यु के बाद ही जीवन का अन्त नहीं हो जाता है।

जीन्द की यह घटना तो स्पष्टतया भारतीय दर्शन की उस मान्यता का ही उल्लेख है। 11 वर्षीया बालिका के बारे में यह माना जा सकता है कि बौद्धिक प्रतिभा के कारण उसने अन्य समवयस्कों की अपेक्षा थोड़ा अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया होगा पर जो वस्तु उसने कभी पढ़ी भी नहीं, वह इस जन्म का विकास कैसे हो सकता है दूसरे उसे धर्म के गूढ़ रहस्यों का कोई पता भी नहीं फिर भी वह बताती है कि मैं अर्विन अस्पताल दिल्ली के एक डॉक्टर की पुत्री थी। हम अग्रवाल जाति के थे। मेरे जीप और कार थी। मेरा नाम सुमन था। मुझे खूब अच्छे-अच्छे मीठे पकवान आदि खाने को मिलते थे मैंने इंटर तक पढ़ाई की थी।

पिछले जन्म के कई संस्कार इस जीवन में अपने आप परिलक्षित हो रहे हैं—(1) तो यही कि उसने बिना पढ़े अंग्रेजी आदि का ज्ञान पाया। (2) उसका डील-डौल सामान्य गति से अधिक तेजी से बढ़ रहा है। उसकी वर्तमान मां यह बताती है कि बालिका को कोई अतिरिक्त खुराक नहीं दी जाती तो भी उसका शरीर असाधारण रूप से बढ़ रहा है। डॉक्टर भी उसका कोई कारण समझ नहीं पाते। (3) अब चूंकि वह निर्धन घर में है इसलिए उसे अच्छा खाना कभी कभी मिलता है वह उसका अधिकांश अपनी बहिनों-भाइयों को दे देती है और कहती है कि यह वस्तुएं मैंने भरपेट खाई हैं इसलिये मेरी उनमें कोई बहुत रुचि नहीं है। (4) दिल्ली, अमृतसर, डलहौजी शिमला आदि स्थानों के वह कई रोचक वर्णन सुनाती है, जिसे उसने देखा भी नहीं। यह चारों बातें पूर्व जन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को ही पुष्ट करती है।

इस घटना का सबसे आश्चर्यजनक पहलू तब सामने आया जब उसकी मां के पेट से एक और कन्या जन्मी और उसके जन्म लेते ही बड़ी बहिन फूट-फूटकर रोने लगी—उसने कहा अरी! पूनम तू जीजाजी को और दोनों बच्चों को किसके सहारे छोड़ आई? लोग कहते थे यह क्या पागलपन है। किन्तु इस बालिका ने बताया कि यह छोटी बहिन पहले जन्म में मेरी बहिन थी। इसका नाम पूनम था। इसकी शादी भिवानी के एक अध्यापक के साथ हुई थी। पूनम का रंग कुछ सांवला था इसलिए जीजाजी उसे चिढ़ाते रहते थे। पूनम ने उससे दुःखी होकर एक दिन आत्म-हत्या करली और इस तरह पूर्व जन्म की दो सगी बहनें फिर इस जन्म में सगी बहनें हुईं।

आश्चर्य यह है कि आत्मा की सूक्ष्मता के कारण किसी विशिष्ट व्यक्ति की पहचान सम्भव नहीं है फिर बालिका ने जन्म लेते ही अपनी बहिन को कैसे पहचान लिया जबकि इस जन्म में उसका शरीर उसकी मुखाकृति सब कुछ अलग अलग है। अब यह बालिका भी 4-5 वर्ष की है और जब इस जन्म की बड़ी बहिन किसी को पूर्व जन्म की बातें बताने लगती है, तो छोटी बहिन उसे रोकती है और कहती है अब यह सब बातें करने से क्या लाभ? उनकी यह गम्भीरता यह सोचने को विवश करती है कि क्या सचमुच हमारे मर जाने के बाद भी जीवन बना रहता है।

बहुत छोटी आयु में असाधारण प्रतिभाओं का होना पुनर्जन्म का प्रामाणिक आधार है। मनुष्य का स्वाभाविक विकास एक साथ जुड़ा है। तीव्र मस्तिष्क कितना ही क्यों न हो उसे क्रमबद्ध प्रशिक्षण की आवश्यकता तो रहेगी ही। यदि बिना किसी प्रशिक्षण अथवा उपयुक्त वातावरण के छोटे बालकों में असाधारण विशेषताएं देखी जायं तो उसका समाधान भी उनके पूर्वजन्मों के संग्रहीत ज्ञान के ही कारण मानने से हो सकता है। मरणोत्तर जीवन की मान्यता और संस्कारों का दूरगामी प्रभाव-परिणाम अध्यात्म-दर्शन का एक बड़ा आधार है। चिन्तन की शैली, आकांक्षा और दिशा का प्रभाव न केवल इस जीवन में विविध हलचलों की केन्द्रीय प्रेरणा के रूप में क्रियाशील रहता है, अपितु अगले जीवन में भी यह प्रभाव बना रहता है। व्यक्तित्व को विकसित एवं परिवर्तित कर सकने की वास्तविक शक्ति इन्हीं संस्कारों की प्रखरता में सन्निहित है। संस्कार किसी ग्रह-नक्षत्र की कृपा से नहीं बनते-बिगड़ते। मनुष्य अपने मनोबल, विवेक और पुरुषार्थ से ही उन्हें निखारता है। अतः सत्संस्कारों को ही जन्म-जन्मान्तर तक साथ देने वाले अभिन्न-मित्र समझकर उनकी संख्या और शक्ति बढ़ाने के लिए सदा सजग रहने में ही बुद्धिमानी है। यात्रा का पाथेय और प्रगति के सुनिश्चित आधार सत्कर्म तथा सत्संस्कार ही हैं।

अध्यात्म के सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन को अधिक पवित्र एवं शालीन बनाने की भूमिका सम्पादित करते हैं। उनसे सामाजिक सुव्यवस्था की आधारशिला भी रखी जाती है और सर्वजनीन एवं सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता है।

1-शरीर की नश्वरता, 2-आत्मा की अमरता, 3-कर्मफल का सुनिश्चित होना तथा परलोक पुनर्जन्म की सम्भावना यह चार सिद्धान्त ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में प्रायः अध्यात्म की सभी शाखाओं में प्रतिपादित किये गये हैं। यों कई धर्मों में पापों के क्षमा हो जाने और मरणोत्तर जीवन की स्थिति में भिन्न मान्यताएं भी हैं, पर वे लोच लचक के रूप में ही हैं। इतनी कठोर नहीं कि उनसे उपरोक्त चार सिद्धान्त जड़-मूल से ही कट जाते हों। मरणोत्तर जीवन किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। कर्म को भले ही नैतिक रूप में न मान कर साम्प्रदायिक विश्वासों की परिधि में लपेट लिया गया हो तो भी यह नहीं कहा गया कि कर्म का कोई फल नहीं मिलता। इस प्रकार छोटे मतभेदों के रहते हुए मूल सिद्धान्तों के प्रति प्रायः सहमति ही पाई जाती है।

वर्तमान जीवन में शुभ कर्म करने पर भले ही इस जन्म में उसका सुखद प्रतिफल न मिले पर मरणोत्तर जीवन में उसका मंगलमय परिणाम उपलब्ध हो जायगा इस विश्वास के आधार पर लोग त्याग और बलिदान के बड़े-बड़े साहस पूर्ण कदम उठाते हैं। इस जन्म में किये गये पापों के दण्ड से भले ही इस समय किसी चतुरता से बचाव कर लिया जाय पर आगे चलकर उसका दण्ड भुगतना ही पड़ेगा। यह सोचकर मनुष्य दुष्कर्म करने से अपने हाथ रोक लेता है और कुमार्ग पर पैर बढ़ाने से डरता झिझकता है। यदि मान्यता को हटा दिया जाय तो तत्काल शुभकर्म का सत्परिणाम न मिलने की स्थिति में कोई उसके लिए उत्साह प्रदर्शित न करेगा। इसी प्रकार पाप दण्ड से सामाजिक बचाव कर लेने की उपलब्ध तरकीबें ढूंढ़ कर फिर कोई अनीति अपनाने पर मिलने वाले लाभों को छोड़ने की इच्छा न करेगा ऐसी दिशा में व्यक्ति और समाज में अनैतिक अवांछनीय तत्वों की बाढ़ आ जायगी और मर्यादाओं के बांध टूट जायेंगे। मानसिक नियन्त्रण न रहने की स्थिति में भयंकर स्वेच्छाचार फैल जायगा और उस उच्छृंखलता से समूची मनुष्य जाति का—समस्त संसार का भारी अहित होगा।

यह मान्यता विश्वव्यापी धार्मिक विश्वासों, अत्युच्च कोटि के प्रतिभाशालियों तथा तत्व दृष्टाओं द्वारा कहे—बताए एवं लिखे गये प्रामाणिक ग्रन्थों एवं विज्ञान की अधुनातन मान्यताओं के भी सर्वथा विपरीत है। पुनर्जन्म न केवल एक लोक कल्याणकारी सिद्धान्त है, अपितु वह एक ईश्वरीय-व्यवस्थाा, अटल नियम एवं सुनिश्चित सुनियोजित प्रक्रिया है। आवश्यकता उस प्रक्रिया को कर्मफल की अनिवार्यता एवं संस्कारों की महत्ता को समझने तथा जीवन-लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास करने की है। मानव-जीवन का हेतु तथा महत्व भी यही है।

Language: Hindi
Tag: Article
241 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
आइये हम ये विचार करें
आइये हम ये विचार करें
Dr.Pratibha Prakash
क्या लिखते हो ?
क्या लिखते हो ?
Atul "Krishn"
" नई चढ़ाई चढ़ना है "
भगवती प्रसाद व्यास " नीरद "
जन्मदिन विशेष : अशोक जयंती
जन्मदिन विशेष : अशोक जयंती
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
अरे ! पिछे मुडकर मत देख
अरे ! पिछे मुडकर मत देख
VINOD CHAUHAN
#दिनांक:-19/4/2024
#दिनांक:-19/4/2024
Pratibha Pandey
*मैं, तुम और हम*
*मैं, तुम और हम*
sudhir kumar
*यौगिक क्रिया सा ये कवि दल*
*यौगिक क्रिया सा ये कवि दल*
DR ARUN KUMAR SHASTRI
कौन  किसको पूछता है,
कौन किसको पूछता है,
Ajit Kumar "Karn"
3234.*पूर्णिका*
3234.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
सेवा जोहार
सेवा जोहार
नेताम आर सी
..
..
*प्रणय प्रभात*
*गठरी धन की फेंक मुसाफिर, चलने की तैयारी है 【हिंदी गजल/गीतिक
*गठरी धन की फेंक मुसाफिर, चलने की तैयारी है 【हिंदी गजल/गीतिक
Ravi Prakash
खुशबू सी बिखरी हैं फ़िजा
खुशबू सी बिखरी हैं फ़िजा
Sunita
तुझमे कुछ कर गुजरने का यहीं जूनून बरकरार देखना चाहता हूँ,
तुझमे कुछ कर गुजरने का यहीं जूनून बरकरार देखना चाहता हूँ,
Ravi Betulwala
* मधुमास *
* मधुमास *
surenderpal vaidya
नया साल
नया साल
umesh mehra
कर्म
कर्म
इंजी. संजय श्रीवास्तव
गौरवशाली भारत
गौरवशाली भारत
Shaily
नया साल लेके आए
नया साल लेके आए
Dr fauzia Naseem shad
हिन्दी दोहा-विश्वास
हिन्दी दोहा-विश्वास
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
"अकाल"
Dr. Kishan tandon kranti
देखिए मायका चाहे अमीर हो या गरीब
देखिए मायका चाहे अमीर हो या गरीब
शेखर सिंह
ये बेपरवाही जंचती है मुझ पर,
ये बेपरवाही जंचती है मुझ पर,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
सत्य साधना
सत्य साधना
दीपक नील पदम् { Deepak Kumar Srivastava "Neel Padam" }
Life is forgiving. Every experience, failed or successful, i
Life is forgiving. Every experience, failed or successful, i
पूर्वार्थ
रिसाय के उमर ह , मनाए के जनम तक होना चाहि ।
रिसाय के उमर ह , मनाए के जनम तक होना चाहि ।
Lakhan Yadav
जिंदगी की एक मुलाक़ात से मौसम बदल गया।
जिंदगी की एक मुलाक़ात से मौसम बदल गया।
Phool gufran
किसी महिला का बार बार आपको देखकर मुस्कुराने के तीन कारण हो स
किसी महिला का बार बार आपको देखकर मुस्कुराने के तीन कारण हो स
Rj Anand Prajapati
अर्जुन सा तू तीर रख, कुंती जैसी पीर।
अर्जुन सा तू तीर रख, कुंती जैसी पीर।
Suryakant Dwivedi
Loading...