पिताजी ने मुझसे कहा “तुम मुन्नी लाल धर्मशाला के ट्रस्टी बनकर क्या करोगे ?

*अतीत की यादें*
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*पिताजी ने मुझसे कहा “तुम मुन्नी लाल धर्मशाला के ट्रस्टी बनकर क्या करोगे !”*
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स्वतंत्रता सेनानी श्री सतीश चंद्र गुप्ता जी का मुझ पर बहुत स्नेह था। आप रामपुर में मुन्नीलाल धर्मशाला ट्रस्ट के ट्रस्टी भी थे। आपकी इच्छा थी कि मैं मुन्नीलाल धर्मशाला का ट्रस्टी बन जाऊँ। अपनी यह इच्छा आपने धर्मशाला के एक अन्य ट्रस्टी स्वतंत्रता सेनानी श्री देवीदयाल गर्ग जी के सामने रखी। उन्हें भी मेरे प्रति बहुत अनुराग था और उनकी भी सहमति बन गई । फिर यह बात सतीश चंद जी ने मेरे पिताजी से कही। पिताजी इसके अध्यक्ष थे ।
पिताजी ने मुझे घर पर आकर दोनों महानुभावों की इच्छा के बारे में बताया लेकिन साथ ही कहा ” तुम मुन्नीलाल धर्मशाला के ट्रस्टी बनकर क्या करोगे ! ” मैंने उनकी बात से सहमत होते हुए स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया । इस तरह मैं मुन्नीलाल धर्मशाला की जिम्मेदारी से मुक्त हुआ ।
जनवरी 1962 में जिला अदालत द्वारा पिताजी को इस धर्मशाला का चेयरमैन बनाया गया था। अदालत ने तीन लोगों का एक ट्रस्ट बनाया था । अध्यक्ष पिताजी थे तथा दो अन्य श्री सतीश चंद्र गुप्ता जी तथा श्री देवी दयाल गर्ग जी थे। वास्तव में मुन्नी लाल जी ने अपनी निजी अचल संपत्ति पर धर्मशाला तथा मंदिर बनवा रखा था और इसका स्वरूप दान के रूप में था । उनकी मृत्यु के बाद विधिवत रूप से कार्य के सुचारू संचालन में कुछ कमी रही होगी। जिसके कारण उनकी दोनों पुत्रियों के बीच विवाद हो गया । मुन्नी लाल अग्रवाल जी के पुत्र कोई नहीं था । मामला अदालत में गया तथा अदालत में जाकर मंदिर और धर्मशाला की जमीन-जायदाद को तीन लोगों के ट्रस्ट के हाथ में अदालत ने सौंप दिया । मुझे उसी ट्रस्ट में शामिल करने की श्री सतीश चंद्र जी की इच्छा आरंभ हुई थी ।
अनेक बार व्यक्ति सोचता है कि उसे कोई पद मिल जाए अथवा कोई धन- संपत्ति उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाए तो यह उसके लिए हितकारी होगा । लेकिन इन सब चीजों को प्राप्त न करना भी हितकारी होता है, यह तो कोई बहुत दूरदर्शी व्यक्ति ही सोच सकता है तथा वह हमारा कोई अत्यंत शुभचिंतक ही विचार कर सकता है । पिताजी से बढ़कर मेरा शुभचिंतक तथा मेरा हितेषी भला और कौन हो सकता था। किसी को कोई वस्तु दे देना तो उसके हित में होता है लेकिन किसी को कोई वस्तु न देने में भी उसका अपार हित छिपा हुआ है, इस बात को केवल पिताजी ने ही समझा और उन्होंने मुझे मना कर दिया कि तुम उसके ट्रस्टी बनकर क्या करोगे ! इस बात की गहराई को सर्वसाधारण नहीं समझ सकता । यह तो केवल कुछ ही लोगों की समझ में आएगा कि किसी को कोई वस्तु न देने में भी उसके प्रति कितना भारी प्रेम छुपा हुआ होता है ।
*श्री नरेंद्र किशोर इब्ने शौक की पुस्तक*ःः-
स्वर्गीय मुन्नीलाल जी की दो पुत्रियों में से एक पुत्री का विवाह श्री रघुनंदन किशोर शौक साहब से हुआ था ।आप वकील और प्रसिद्ध शायर थे । आप के पुत्र श्री नरेंद्र किशोर इब्ने शौक ने अपने पिताजी की मृत्यु के पश्चात उनकी उर्दू शायरी के कुछ अंश *चंद गजलियात* नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किए थे । इस पुस्तक में थोड़ा-सा परिचय मुन्नी लाल जी की धर्मशाला का भी मिलता है । आप लिखते हैं ” मुन्नी लाल जी जिनकी धर्मशाला है और जिसके पास में भगवान राधा वल्लभ जी यवन शासित काल में श्री वृंदावन वासी हित हरिवंश गौरव गोस्वामी जी की विधि साधना से आसीन हुए। संभवत उस काल में यह रामपुर नगर का दूसरा सार्वजनिक मंदिर था । प्रथम मंदिर शिवालय था जो मंदिरवाली गली में स्थित है । इसका शिलान्यास एवं निर्माण नवाब कल्बे अली खाँ ने पं दत्तराम जी के अनुरोध से कराया था । मेरी मातृ श्री इन्हीं धनकुबेर मुन्नी लाल जी की कनिष्ठा पुत्री थीं। इसी धर्मशाला के पास पिताजी का निवास 1943 से 1960 तक अपने श्वसुर गृह में रहा । उस काल में रचित उर्दू कविताओं का संग्रह महेंद्र प्रसाद जी सस्नेह मुद्रित कर रहे हैं ।”
दरअसल मेरी मुलाकात श्री नरेंद्र किशोर जी से 1986 में हुई थी । उन्हीं दिनों मैंने “रामपुर के रत्न” पुस्तक भी लिखी थी, जिसे श्री महेंद्र जी ने सहकारी युग से छापी थी । जब आप हमारी दुकान पर आए थे तब उसकी एक प्रति आपको भेंट की गई थी। इस तरह मेरा और श्री नरेंद्र किशोर जी का आत्मीय परिचय स्थापित हुआ था । इसी के आधार पर नरेंद्र किशोर जी की पुस्तक 1987 में सहकारी युग प्रेस से महेंद्र जी ने प्रकाशित की थी। इसके प्राक्कथन में श्री नरेंद्र किशोर जी ने मेरे साथ मुलाकात का उल्लेख इस प्रकार किया है :-
“18 दिसंबर 1986 को मैं स्वनाम धन्य श्री राम प्रकाश जी सर्राफ की दुकान पर उनसे मिलने गया था । वहाँ उनके होनहार चिरंजीव के दर्शन हुए और रामपुर के रत्न की भेंट मिली ।
रवि का प्रकाश पाते ही सुप्त कलम का जाग्रत प्रस्फुटित होना नैसर्गिक क्रिया है । उनके पवित्र चरण चिन्हों पर चलने की इच्छा मैंने अपने 40 वर्ष पुराने मित्र श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी (सहकारी युग प्रेस) से प्रकट की । जो उन्होंने सहर्ष वरदान स्वरुप मुझी को लौटा दी। बंबई लौट कर 25 दिसंबर तक कै.श्री रघुनंद किशोर शौक रामपुरी की 54 कविताओं की हस्तलिखित प्रति महेंद्र जी को भेज दी । ”
इस तरह श्री मुन्नी लाल जी के काव्य-प्रेमी परिवार से आत्मीयता बढ़ी और धर्मशाला का इतिहास भी थोड़ा ही सही लेकिन मुद्रित रूप में उपलब्ध हो गया।
अदालत के आदेश पर 1962 से पिताजी ने जीवन-पर्यंत दिसंबर 2006 तक मुन्नी लाल धर्मशाला के क्रियाकलापों में अपना समय अर्पित किया। समय ,जो सबसे अधिक मूल्यवान होता है और जिस से बढ़कर इस संसार में और कुछ भी नहीं हो सकता।
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*लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा*
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