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24 Jan 2023 · 6 min read

*पत्रिका समीक्षा*

*पत्रिका समीक्षा*
*पत्रिका का नाम : धर्मपथ*
अंक 48 दिसंबर 2022
*प्रकाशक :* उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड फेडरेशन थियोसॉफिकल सोसायटी
*संपादक :* *डॉ शिव कुमार पांडेय* मोबाइल 79 0551 5803
सह संपादक : प्रीति तिवारी मोबाइल 831 890 0811
संपर्क : उमा शंकर पांडेय मोबाइल 94519 93170
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
________________________
धर्मपथ अंक 48 दिसंबर 2022 में चार लेख हैं। चारों लेख एक ही विचार का प्रतिपादन कर रहे हैं। *शिष्यत्व* -में जो कि शिव कुमार पांडेय द्वारा लिखा गया है, गुरु के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। लेखक ने बताया है कि गुरु प्रथम दीक्षा के आरंभपूर्व से ही शिष्य के लिए आनंदमय चेतना का द्वार खोल देते हैं । गुरु की शक्तियां शिष्य में प्रवाहित होती हैं और गुरु शिष्य को एक नलिका के रूप में उपयोग करते हैं । शिष्य की भूमिका केवल इतनी ही होती है कि वह उस नलिका के मार्ग में आने वाले सारे अवरोधों को समाप्त कर दे, अर्थात उसे यह अनुभूति हो जाए कि जीवन एक है और समस्त जीव एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं ।
*महात्मा के पत्र* लेख भी कम आश्चर्यजनक नहीं है । इसमें भारत से प्रकाशित होने वाले *पायनियर* समाचार पत्र के संपादक ए.पी.सिनेट को महात्माओं द्वारा लिखे गए पत्रों का उल्लेख है। लेखक ने बताया है कि महात्माओं ने 154 पत्र ए पी सिनेट को लिखे थे । तीन पत्र लेड बीटर साहब को और अंतिम एक पत्र एनी बेसेंट को लिखा था। अन्य सैकड़ों पत्र महात्माओं द्वारा अन्य-अन्य महानुभावों को लिखे गए । ए.पी.सिनेट को पहला पत्र मैडम ब्लेवेट्स्की के माध्यम से प्राप्त हुआ था । सिनेट के मन में यह विचार आया कि कुछ बड़ा चमत्कार दिखाया जाए । इसलिए उन्होंने मैडम ब्लेवेट्स्की को महात्माओं को देने के लिए एक पत्र लिखा और कहा कि शिमला में कुछ व्यक्तियों के समूह के समक्ष *लंदन टाइम्स* और *द पायनियर* -इन दोनों अखबारों को एक ही समय में उपलब्ध करा दिया जाए । सब जानते थे कि यह कार्य असंभव है । कहां लंदन और कहां भारत ?
इस प्रश्न के उत्तर में 15 अक्टूबर 1880 को शिमला में महात्मा के. एच. द्वारा लिखा गया पत्रोत्तर बहुत महत्वपूर्ण है । चमत्कारों को आधार बनाकर आध्यात्मिक चेतना फैलाने के विचार को महात्माओं ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया । उन्होंने लिखा कि हम प्राकृतिक तरीकों से काम करते हैं न कि अलौकिक साधनों और तरीकों से । महात्माओं ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया कि इस तरह की चमत्कारी घटनाएं आप शिमला में कुछ लोगों के सामने कर सकते हैं, वह साक्षी बन जाएंगे, परंतु उन लाखों का क्या होगा जो बाहर हैं और जिन्हें साक्षी नहीं बनाया जा सकता ? महात्माओं ने कहा कि संसार के पूर्वाग्रहों को क्रमशः जीतना होगा, जल्दबाजी में नहीं। अंत में महात्मागणों ने गुप्त विद्याओं की सामान्य उपलब्धता के विचार को खारिज करते हुए ए.पी.सिनेट को लिखा कि जिस तरह की घटनाओं की आप लालसा रखते हैं उन्हें हमेशा उन लोगों के लिए पुरस्कार के रूप में आरक्षित किया गया है जिन्होंने देवी सरस्वती (हम आर्यों की आईसिस) की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।” सिनेट द्वारा लिखित “ऑकल्ट वर्ल्ड” नामक पुस्तक में प्रकाशित इस लेख का अनुवाद
श्रीमती मीनाक्षी गैधानी, नागपुर ने बढ़िया तरीके से उपलब्ध कराया है।
शिव कुमार पांडेय का एक लेख *हिमालय की कंदराओं में एक पार्लियामेंट* शीर्षक से है। यह भी उन महात्माओं के संबंध में है जो अद्भुत और असाधारण शक्तियों के स्वामी हैं ।पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य की पुस्तक *हमारी वसीयत और विरासत* पृष्ठ 26 को उद्धृत करते हुए शिव कुमार पांडेय लिखते हैं कि थिओसफी के संस्थापक मैडम ब्लेवेट्स्की सिद्ध पुरुष थीं । ऐसी मान्यता है कि वह स्थूल शरीर में रहते हुए भी सूक्ष्म शरीर धारियों के संपर्क में थीं। उन्होंने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि दुर्गम हिमालय में अदृश्य सिद्ध पुरुषों की एक पार्लियामेंट है ।”
इस प्रकार अपने लेख की शुरुआत करते हुए लेखक ने बताया कि यह जो सूक्ष्म शरीरधारी महात्मा हैं, वह श्वेत भ्रातृत्व महासंघ के नाम से जाने जाते हैं । इन पर आयु के थपेड़ों का प्रभाव नाममात्र का होता है। यह शरीरी और अशरीरी दोनों प्रकार के सिद्ध व्यक्तियों का समूह होता है । जहां तक इन महात्माओं के असाधारणत्व का प्रश्न है, लेखक ने मैडम ब्लेवेट्स्की को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि वह असाधारण शक्तियों वाले व्यक्ति नहीं हैं, जिन शक्तियों का वह उपयोग करते हैं वह केवल उन शक्तियों का विकास है जो प्रत्येक स्त्री पुरुष में सुप्त अवस्था में पड़ी हैं, जिसे कोई भी उपलब्ध कर सकता है । इस प्रकार जिन अध्यात्मिक ऊंचाइयों पर महात्मा विराजमान हैं, वह साधना से प्राप्त होने वाली स्थितियां हैं। आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है।
इस पर लेख महात्माओं का विवरण प्रस्तुत करते हुए सर्व सामान्य मनुष्य को साधना के द्वारा महात्माओं के समान बन सकने का मार्ग सुझाता है।
महात्माओं की आयु के आश्चर्य को *जीवन का अमृत* शीर्षक से अपने लेख में उमा शंकर पांडेय ने वैज्ञानिकता के आधार पर खोज-पड़ताल करके जानने का प्रयत्न किया है। मैडम ब्लेवेट्स्की के लेख *महात्मा और चेला* को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा है कि यह महात्मा गण 1000 वर्ष की आयु के नहीं हैं, लेकिन हां जब मैडम ब्लेवेट्स्की 20 वर्ष की थीं, तब भी यह महात्मा नवयुवक थे और जब मैडम ब्लेवेट्स्की बूढ़ी हो गई तब भी यह महात्मा युवा ही रहे। जब मैडम ब्लेवेट्स्की से पूछा गया कि क्या महात्मा लोगों ने जीवन का अमृत ढूंढ लिया है ? तब मैडम ब्लेवेट्स्की ने जो उत्तर दिया वह बहुत ध्यान देने योग्य है। वह कहती हैं, यह केवल एक गुह्य प्रक्रिया जिससे आयु का बढ़ना और देह का क्षरण अधिक समय तक रुकता है, को ढकने का आवरण है। रहस्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य वातावरण की परिस्थितियों के अनुसार एक समय में मृत्यु की ओर खिंचता है। यदि उसने अपनी जीवनी शक्ति को बर्बाद कर दिया है तो उसके लिए कोई बचाव नहीं होता किंतु यदि उसने नियम के अनुसार जीवन जिया है तो वह उसी देह में बहुत समय तक रह सकता है। यही जीवन का अमृत है कि किस प्रकार से मृत्यु की ओर बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा किया जा सके।
लेखक ने विचार व्यक्त किया है कि अमृत एक असंभव तथ्य है लेकिन जीवन की अवधि को इतना लंबा कर देना संभव है कि वह उन लोगों को जादुई और अविश्वसनीय लगेगा जो हमारे अस्तित्व को केवल कुछ सौ वर्षों तक ही सीमित मानते हैं ।
प्रश्न यह है कि यह कैसे संभव है ? इस दिशा में लेखक ने इस वैज्ञानिक तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है कि मनुष्य सात वर्षों में अपनी त्वचा को सांप की तरह बदल देते हैं । इसके अलावा शरीर में चोट लगने पर उसे जोड़ने की भी क्षमता होती है। लेखक के अनुसार हमें अपने शरीर के बाहरी खोल को छोड़कर उसमें से चूजे की तरह अपने अगले परिधान के साथ बाहर आना होगा । यह आध्यात्मिक नहीं बल्कि वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति अपने शरीर के एस्ट्रल (जीवंत शरीर) को इस तरह विकसित करता है कि दृश्य शरीर से उस को पृथक करने में उसे सफलता मिल जाती है। तत्पश्चात दृश्य शरीर को नष्ट करते हुए वह एक नए अदृश्य शरीर को दृश्य रूप में विकसित करने में सफलता प्राप्त कर लेता है । यह अपनी ही खाल को बदलने जैसी एक प्रक्रिया होगी। लेखक का लेख इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि वह चमत्कार कहकर सैकड़ों हजारों वर्ष जीवित रहने की बात नहीं कर रहे अपितु इसके पीछे छुपे हुए वैज्ञानिक तथ्यों की जांच-पड़ताल बारीकी से करना चाहते हैं। यह लेख इस महत्वपूर्ण शोध को आगे बढ़ाएगा और आधार भूमि उपलब्ध कराएगा कि किस प्रकार शरीर में वैज्ञानिक परिवर्तन द्वारा व्यक्ति सैकड़ों वर्षों तक स्वस्थ एवं युवकोचित जीवन जी सकता है। अपनी शोध परक वृत्ति के कारण धर्मपथ का यह अंक अध्यात्म के गंभीर पाठकों को बेहतरीन पठनीय सामग्री भी उपलब्ध कराता है और जीवन पथ पर विकास करते हुए अनंत ऊंचाइयों का स्पर्श करने का अवसर भी प्रदान करता है । सुंदर लेखों के संग्रह के लिए संपादक बधाई के पात्र हैं।

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