*निर्मल – मलिन*
*निर्मल – मलिन*
गंगा नदी का पवित्र *निर्मल* जल धारा ,
ओ मानव क्यों धूमल मन करता जाए मलिन।
जिस धरा पे बहती शुद्ध *निर्मल* जल धारा,
वहाँ कूड़ा करकट अस्वछता कर दिया मलिन।
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प्रेम जीवन को *निर्मल* कर बांधे रखता ,
अजीब सी दहशत फैला ईर्ष्या द्वेष से मन हो जाता मलिन।
प्रेम के *निर्मल* बंधनों में जुड़ा ये सारा संसार ,
टूटकर जब बिखर जाए धूमिल छाया हो गई मलिन।
जय श्री कृष्णा जय श्री राधेय
*शशिकला व्यास* ✍️
स्वरचित मौलिक रचना