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2 Oct 2024 · 1 min read

नट का खेल

ना देखा था कोई सपना, जब पड़ा त्यागना अपना l
कुछ फंसे जाल में ऐसे मुख सांप छछूंद जैसे ll

अंदर लेने मे मरता, बाहर लाने मे फंसता l
जब जाना रस्ता भटका, सोचा सब खेल था नट का ll

रहा भारी मन मे सोच, “संतोषी” पूछे अपना दोष l
है रचना सब भगवान की, ना पेश पड़े बलवान की ll

प्रेम से जोड़े तिनके आशा के, घर बसना था सज धज के l
बन भूचाल झूठ का आके, नट को पटका, डोर तुड़ा के ll

Language: Hindi
15 Views
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