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17 Aug 2016 · 1 min read

धाँगा (लघुकथा)


राखी का पर्व आते ही कनिका में अजीब सी ललक एवं कौतूहल फैल जाता था । उसे वो लम्हें याद जाते थे जब उसने मुँह बोले भा सुदीप की कलाई में रक्षासूत्र बाँधा था । सुदीप के रक्षासूत्र बाँधते कई दशक बीत गये थे । सुदीप जब विदेश में रहता तब कई बार कनिका की आर्थिक सहायता कर चुका था आखिर कनिका मुँह बोली बहिन थी आज राखी के पर्व पर कनिका का हृदय भारी हो गया बरबस नजरें आतुर हो उठी ।

बचपन की तूँ – तूंँ , मैं -मैं साथ – साथ खेलना , हठपूर्ण शैतानी से सुदीप को मारना , उसे बरबस ही याद आ गया । सुुदीप भी कनिका का हौसलाँ बढ़ाऐ रखता था , लेकिन कनिका के पति को शक होने लगा इसलिये समय के अन्तराल पर भाई – बहन के इस पावन रिश्ते को शक ने धूमिल कर दिया था । मर्ज का इलाज है पर शक का नहीं । कनिका के पति की शक भरी नजरों नह हमेशा के लिए खत्म कर दिया था
जिसे तोड़ने की कसक कनिका के अन्तस् में आज भी है धागा जो कनिका के पति ने तोड़ा फिर न जुड सका । आज भी उसे तोड़ने का दर्द हृदय में उठता है तो पति के साथ रिश्ते को स्वीकार कर भाई के रिश्ते को दफन करना पड़ता है ।

डॉ मधु त्रिवेदी

Language: Hindi
73 Likes · 584 Views
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