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3 Jul 2021 · 1 min read

दुख सहीले किसान हँईं

दुख सहीले किसान हँईं
(छंदमुक्त कविता)
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
जोगअवले हम ईमान हँईं,
कर्ज से परेशान हँईं,
दुख सहीले किसान हँईं।

सबके बोझ उठाइले,
घामें देहि जराईले,
हम खाईं चाहें ना खाईं,
सबके खूब खियाईले,
हम देशवा के पहिचान हँईं,
जन जन के मुस्कान हँईं-
दुख सहीले किसान हँईं।

उठते हर उठाईले,
कबो ना सुस्ताईले,
काम ना ओराला कबो,
तबो ना अगुताईले,
समझ में नाहीं आवेला,
मशीन हँईं कि इंसान हँईं-
दुख सहीले किसान हँईं।

कबो बाढ़ फसल बहावेला,
कबो सूखा आगि लगावेला,
कबो जरे अनाज खरिहाने में,
कबो कर्जा पीर बढ़ावेला,
सभे बा धनवान इहाँ,
हम तअ पइया धान हँईं-
दुख सहीले किसान हँईं।

करमें के विश्वासी हम,
आराम नाहीं जोहीले,
पेट पीठ में सटले रहे,
तबो बोझा ढोईले,
हम गरहन लागल चान हँईं,
ढहल मड़ई पुरान हँईं-
दुख सहीले किसान हँईं।

– आकाश महेशपुरी

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