दुकान वाली बुढ़िया

आंखों पर लगे टूटे चश्मे से
वह सबको देखा करती थी,
कपकपाते हाथो से सामान बेचकर
खूब सारी दुआए भर–भरके देती थी।।
वह बुढ़िया स्वाभिमान की एक रोटी के लिए
हर रोज, घंटो, सुबह-शाम–दोपहर,
मेट्रो के नीचे, नुक्कड़, चौराहे पर,
किसी ग्राहक का इंतज़ार करती थी।।
यू ही बिखेरी थी अपनी सामान को,
किसी अलमीरा में सजा कर नहीं ,
रोड किनारे फटे गमछे पर रखती थी,
किसी मॉल में सजाकर नहीं।।
चलते राहगीर से कपकपाती आवाज़ में
वो हर–रोज फरियाद लगाती थी,
रोड़ की दुकान से नयी सामान खरीद लो
इस बुढ़िया का आशीर्वाद फ्री में ले लो ।।
जाने क्या बेड़ियां थी कुछ तो मजबूरियां थी
शायद दिल के दर्द को समेट लिया उसने,
कई दिनों से दुकान नहीं खुली उसकी
लगता है अपनी आंखें बंद कर लिया उसने ।।
©अभिषेक पाण्डेय