दासी

बनकर दासी तुम्हारी, मैने हर अत्याचार सहे !
खुशी तुम्हारी थी मेरी, कभी न एक बार कहे !!
कहते थे मुझको जीवन-साथी,साथ नही निभाया!
मेरा प्रतिरूप तुम्हीने,औरों के कहने पर गिरवाया!
अपनी बीमारी पर भी,हर रात व्याभिचार सहे,
पुरुषों का समाज , इनकी करनी कौन कहे?
बनकर दासी तुम्हारी..
घर की मै प्राण प्रिये,बाहर इनका अम्बार प्रिये!
घर हो या बाहर, कौन करे इनका एत्बार प्रिये!
एक नई कोंपल के लिये,मैने कितने दर्द सहे,
तुमने कितने ज़ुल्म किये,घरवालों से नही कहे!!
बनकर दासी तुम्हारी…
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७