*दलबदल कमीशन एजेंसी (हास्य व्यंग्य)*

*दलबदल कमीशन एजेंसी (हास्य व्यंग्य)*
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पाँच साल में एक बार मौका आता है ,जब दलबदल कमीशन-एजेंसी का बिजनेस चरमोत्कर्ष पर होता है । यह भी मुश्किल से दो-तीन महीने का सहालग रहता है । जब तक चुनाव के नामांकन पत्र नहीं भर जाते हैं तथा टिकट वितरण का कार्य पूरा नहीं हो जाता ,तब तक दलबदल की माँग रहती है।
आजकल रोजाना दलबदल कमीशन एजेंसी पर आर्डर आ रहे हैं । बिजनेस अच्छा है । दुकान के मालिक को सब प्रकार के दलबदल के बारे में जानकारी है । दलबदलू भी संपर्क में रहते हैं । अपना नाम लिखा देते हैं ,कोई अच्छा खरीदार आए तो बताना ,बिक जायेंगे । खरीदार आता है तो कमीशन एजेंट दलबदलू से संपर्क करता है। दलबदलू की शर्तें खरीदार को बताता है। अगर सौदा पट गया तो दलबदलू कमीशन एजेंसी को मुनाफा हो जाता है ।
आजकल चुनाव का मौसम है। रोजाना सौ-पचास टेलीफोन आ जाते हैं ।
“भाई साहब ! कल तक दस-पंद्रह जनों का इंतजाम कर दीजिए । हमारे यहां “अपने वाले” कुछ कम पड़ रहे हैं ।”
. “भाई साहब ! अमुक जाति के चार-छह दलबदलू अगर भिजवा देंगे तो हमारा काम चल जाएगा ”
“भाई साहब ! जो दल बदलू पाँच साल पहले हमारा दल छोड़ कर गए थे अगर उनमें से दस-बीस वापस लौट आएं तो बताइए क्या खर्च करना पड़ेगा ?”
कमीशन एजेंसी की दुकान पर प्रायः दलबदलू कुर्सी पर पालथी मारकर बैठे रहते हैं । कब फोन आए और कब डील कर लें। ऐसा नहीं कि उधर से मांग आए और कमीशन एजेंसी वाला उनकी बजाए किसी और से मामला फिट करा दे ।
आजकल दलबदलुओं की संख्या भी अच्छी-खासी हो गई है । दो ढूंढने निकलो तो चार मिल जाते हैं । चार जनों से बात शुरू करो तो दस-बारह लोगों को भनक लग जाती है अर्थात कहने का मतलब यह है कि दल बदलू भी मारे-मारे फिर रहे हैं । कोई लेने को तैयार नहीं है ।
काफी बड़ी संख्या में जो नेतागण अपनी पुरानी पार्टी में पड़े हुए हैं ,उसका एक कारण यह है कि उनका दूसरी पार्टी में दलबदल करने का मामला सेट नहीं हो पा रहा । कोशिश करते हैं ,लेकिन कोई न कोई लंगड़ी मार देता है । हर पार्टी में चार लोगों की चौकड़ी कब्जा किए रहती है । वह किसी पांचवें को अपने घेरे के भीतर आने नहीं देती। बेचारे दल बदलुओं को मुंह मसोसकर रह जाना पड़ता है । कुछ दल बदलू बड़े धांसू होते हैं । उनके दल बदलते ही एक बड़ी खबर न्यूज़ चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ बनकर चमकने लगती है ।
लेकिन यह भी सत्य है कि दलबदलू केवल एक जुगनू की तरह चमकते हैं और फिर उन्हें कोई नहीं पूछता। जो अपने दल के नहीं हुए ,वह दूसरे दल के क्या होंगे ? आ गए तो ठीक है । बिठा लो। उसके बाद अगले दिन बेचारे चाय का खाली कप लेकर लाइन में खड़े हैं और कोई चाय पिलाने वाला नहीं है । हर पार्टी में सौ – पचास दलबदलुओं का एक अलग प्रकोष्ठ बन जाता है । यह पार्टी के भीतर एक उप-पार्टी कहलाने लगती है । भाई साहब ! दल तो बदल लिया ,मगर अब खाली बैठे हैं।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर( उत्तर प्रदेश)
मो.9997615451