तुम क्या जानो”

वो मेरा जमाना कैसा था,
तुम क्या जानो।
क्या क्या कठिनाई होती थी,
तुम क्या जानों।
बैलों को भरना था सानी,
व गइया को चारा पानी,
दरवाजे का झाड़ू करना,
कुएं से पानी था भरना।
सब करके पढ़ने जाने को।
तुम क्या जानों।
विद्यालय में बस्ता तख्ती थी,
धरती पर टाटें बिछती थी,
वहां रोज पढ़ाई होती थी,
और खूब पिटाई होती थी,
हांथो पर डंडे खाने को।
तुम क्या जानों।
अधभूँखा रहना पड़ता था,
कथरी ही एक बिछौना था,
मच्छर का भी तो रोना था,
खटमल के अंग संग सोना था,
दुखती अंधियारी रातों को।
तुम क्या जानो।
कॉलेज हमारे गाँव था,
पीपल की ठंडी छाँव में था,
अध्यापक पेट के मोटे थे,
अध्यापन में कुछ खोंटे थे,
इंग्लिश, हिंदी में पढ़ने को।
तुम क्या जानो।
कुड़ियां तो पढ़ती थी संग में,
पर रहती थी अपने रंग में,
कभी भूल से बात न होती थी,
लड़कों की किश्मत फूटी थी,
अपना मन मार के रहने को।
तुम क्या जानो।
न पिज्जा था न बर्गर था,
पास्ता मैक्रोनी केक न था,
न कोल्ड्रिंक न मोमो था,
न कॉफी थी न टॉफी थी,
गुड़ की भेली गुललैया को,
फत्ते की चाट कचालू को।
तुम क्या जानो।
गुब्बारे वाला आता था,
कुछ रंग बिरंगे लाता था,
बन्दर संग एक मदारी था,
करतब में जरा अनारी था,
पूरबिन भौजी की तरकारी,
ग्वालिन काकी माठा मारी,
भूजइन के मकई लावों को ,
तुम क्या जानो।
घर छप्पर या खपरैले थे,
सब बच्चे दिखते मैले थे।
लोगों की हालत माली थी,
फिर भी हर दिन दीवाली थी,
जबकि पैसों से रीते थे,
लेकिन सब खुल के जीते थे।
एक दूजे दुख संग जीने को,
तुम क्या जानो।
श्रद्धा से आटा सनता था,
चूल्हा में खाना बनता था।
सब पालथी मार के खाते थे,
भिन्सारे जंगल जाते थे।
रोगों की कहीं न छाया थी,
निरोगी सबकी काया थी।
पूरा कुटुम्ब सब एक में था,
पुरखा की देखरेख में था।
ईमान से घर चलाने को,
तुम क्या जानो।
अब तो सब भूल भुलैया है,
न गुड़ न ही गुललैया है,
न माठा चाट कचालू है,
न बन्दर है न भालू है।
न कथरी,टाट,न बस्ता है,
मानव का जीवन सस्ता है।
मोबाइल में हैं ऐप बहुत,
और रिश्तों में हैं गैप बहुत ।
घर गाँव खेत सब खाली है,
न होली है न दिवाली है।
अपनेपन की वो डोर कहाँ,
वह समय कहाँ,वह गांव कहाँ,
वे लोग कहाँ अब चले गए।
हम क्या जानें…..।
……..तुम क्या जानो।
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