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29 May 2024 · 1 min read

तन्हा

कब से तन्हा हूँ
इस सूने खंडहर की तरह
सदियों से जीर्ण-शीर्ण
इमारत की तरह
न कोई आता है न जाता है
कुछ जंगली बेलें उगी हुई हैं
ज़िंदगी के नाम पर
या कभी कभार
कोई परिंदा पंख फड़फड़ाता है
कोनों में सुबकती तनहाइयाँ
कभी-कभी आपस में बतियाती हैं…
©️कंचन”अद्वैता”

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