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26 Oct 2022 · 2 min read

जिंदगी का एकाकीपन

जिंदगी का एकाकीपन
(एक पागल की मानसिक दशा)
छन्दमुक्त काव्य
~~°~~°~~°
जिंदगी का एकाकीपन,
न अनाथालय न वृद्धाश्रम।
सड़क किनारे बने फुटपाथ पर ,
फटे पुराने मटमैले वस्त्रों में लिपटा ,
अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति,
बातें करता पंचतत्वों से।
देख रहा खुले नेत्र से अपरिमित नभ को ,
याद करता ,
बीते वक़्त का कारवाँ ,
जो तुरंत धुमिल हो जाता उसके जेहन से।
ऐसा लगता जैसे इन आंखों ने,
भूतकाल में कुछ देखा ही नहीं।
कभी गुपचुप शांत बैठा ,
तो कभी झल्लाए स्वर में कोसता अपने भाग्य को।
मन में व्यापत सूनापन ,
दिल को कचोट रहा था।
याद करके,
संवेदनाओं की हत्या से उपजी ,
अभिजात वर्ग की वो खौफनाक हँसी ,
जिसने उसके दिलों दिमाग को विक्षिप्त कर दिया था।
जिन अपेक्षाओं के बल पर,
अपने हौसलों को जिन्दा रखा था उन्होंने।
उसके बिखर जाने का गम,
उसे खल रहा था।
मस्तिष्क का ज्यादा संवेदनशील होना भी,
आज के जमाने में एक बुराई से कम नहीं।
सब कुछ तो किया था उसने,
अपनों की अच्छी परवरिश के लिए ,
ताकि समाज में रुतबा कायम रह सके।
पर वही समाज अब झाँकता तक नहीं ,
कहता पागल हो गया बेचारा ,
अपनी जिम्मेदारियों को ढोते-ढोते।
एक दिन मरेगा इन्हीं सड़कों पर ,
तो कोई पहचानेगा तक नहीं।

देखो तो आज सड़क पर कितनी चहल-पहल है ,
त्योहारों में लोग सज धज कर ,
कितने चहक रहें हैं।
सपनें संजोये अरमानों का पुलिंदा लिए ,
मुट्ठी में कैद कर लेना चाहते हर खुशी को।
पर वो पागल अजीब शांति मन में लिए ,
एक बड़े पत्थर पर सिर टिकाए,
निहारता उन सबको…
कहीं उनमें से कोई उनका सगा तो नहीं।
खैर मस्तिष्क की हलचलें ,
अब उसे ठीक से सोचने भी कहाँ देती।
बस शुन्य भाव चक्षुओं का सामना,
शुन्य क्षितिज से होता बारम्बार टकराता आपस में।
फिर रौबदार दाढ़ी-मूंछ पर हाथ फेरता वह सोचता_
पूर्ण पागल बन जाना भी ,
इस युग के लिए कितनी बड़ी उपलब्धि है।
नहीं तो अर्द्धपागल तो घरों में ,
अक्सर कैद रहते हैं…!

मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि –२६ /१०/२०२२
कार्तिक,कृष्ण पक्ष ,प्रतिपदा , बुधवार
विक्रम संवत २०७९
मोबाइल न. – 8757227201
ई-मेल – mk65ktr@gmail

Language: Hindi
Tag: कविता
5 Likes · 257 Views
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