जहाँ भी जाता हूँ ख्वाहिशों का पुलिंदा साथ लिए चलता हूँ,

जहाँ भी जाता हूँ ख्वाहिशों का पुलिंदा साथ लिए चलता हूँ,
कभी ख्वाहिशेँ मुझे भटकाती हैं,
कभी मैं इनको भटकाता हूँ।
कभी दबा लेता हूँ चुपके से मैं इनको अपने अस्तित्व के किसी अँधेरे कोने में,
कभी स्वरूप बदल कर ये आ जाती हैं सामने और अपना हिसाब चुकाती हैं।
डॉ राजीव
चंडीगढ़।