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6 Oct 2016 · 1 min read

जलता हूँ फिर भी नहीं करता

जल -जल उठता हूँ बार – बार

जब से सँभाला होश मैने
दावानल की तरह जल रहा हूँ
कभी प्रेम की विरहाग्नि में
स्पर्धा की आग में
डाह की अग्नि

जल उठता हूँ बार बार मैं
दीपक की भाँति
गिरता रहता हूँ लौं बन
निरन्तर ऊपर से नीचे
खो देता हूँ वजूद अपना

लौं के गिरने से
क्षण क्षण नष्ट होता रहता
फिर भी जिन्दा हूँ मैं
घोट कर अपना गला
कितनी ही बार मरा मैं

हर एक बार मर कर
पुनः जीवित हो जाता हूँ मै
पाषाण खण्ड सा घूमता हूँ
दिल को टाँग खूँटी पर
लीन हो जाता हूँ कर्म में

चलता फिरता हूँ
बन जीवित लाश मैं
कामेच्छा के उद्वेगों से दूर
बस चलता रहता हूँ
मर कर जीवित रहता हूँ

डॉ मधु त्रिवेदी

आगरा

Language: Hindi
73 Likes · 483 Views
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