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11 Jan 2022 · 1 min read

छीन रहा है

गीत.. (छीन रहा है…)

छीन रहा है स्वयं आदमी,
अपने बागों की खुशहाली।
काट रहा वह होकर निर्भय,
हाथों से बैठा जिस डाली।।

रिस्तो को बाजार बनाकर,
लोग आज व्यापार कर रहे।
किसका कैसा होगा हिस्सा,
इस पर ही टकरार कर रहे।।
ताक रहा है मन मसोसकर,
दर्द लिए अन्तर्मन माली।
छीन रहा है स्वयं आदमी,
अपने बागों की खुशहाली।।

शौक हमारे नये- नये नित,
पलकों में आ तैर रहे हैं।
पा लेने की जिद मन में वह,
जो अब तक सब गैर रहे हैं।।
ढूँढ़ रहे हम इधर-उधर बस,
लगता है लेकिन सब खाली।
छीन रहा है स्वयं आदमी,
अपने बागों की खुशहाली।।

गुमसुम-गुमसुम क्यों हो बैठे,
क्यों इतना तुम सोच रहे हो।
बिगड़ रहे हालात भापकर,
किसको इतना कोच रहे हो।।
देख नयी रफ्तार तरक्की,
गूंज रही महफिल में ताली।
छीन रहा है स्वयं आदमी,
अपने बागों की खुशहाली।।

घाटी नदियाँ जंगल पर्वत,
दूर गगन में चाँद सितारे।
चाह रहे हो करना सबको,
अपने ही अनुसार इशारे।।
लील रही हर ओर इमारत,
सारी धरती की हरियाली।
छीन रहा है स्वयं आदमी,
अपने बागों की खुशहाली।।

डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)

Language: Hindi
Tag: गीत
1 Like · 207 Views

Books from Dr. Rajendra Singh 'Rahi'

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