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5 May 2022 · 1 min read

ग़ज़ल

ग़ज़ल- समुंदर देखता हूं

उसी को सबके अंदर देखता हूं।
मैं क़तरे में समुंदर देखता हूं।।

मंदिर-मस्ज़िद हो, वो एक ही तो है।
मैं उन्हें शामों सहर देखता हूं।।

हमें ये मुल्ला पंड़ित बांटते है।
आड़ में ही धर्म पर क़हर देखता हूं।।

यहां पे भी चैंनों सुकूं अब मिले ना।
गांवों को बनते शहर देखता हूं।।

जो पहले थीं वो अब शराफ़त नहीं है।
मैं काले मुंह का बंदर देखता हूं।।

“राना” ये ज़ुल्मों सितम देखकर।
दिल में ही उठती लहर देखता हूं।।
***
© राजीव नामदेव “राना लिधौरी”
संपादक-“आकांक्षा” हिंदी पत्रिका
संपादक- ‘अनुश्रुति’ बुंदेली पत्रिका
जिलाध्यक्ष म.प्र. लेखक संघ टीकमगढ़
अध्यक्ष वनमाली सृजन केन्द्र टीकमगढ़
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (मप्र)-472001
मोबाइल- 9893520965
Email – ranalidhori@gmail.com
Blog-rajeevranalidhori.blogspot.com

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