गंगा का फ़ोन

“भाई नमस्ते!” ताऊ जी की लड़की गंगा का फ़ोन था।
गंगा दिल्ली के कालकाजी इलाके में डी.डी.ए. फ्लैट्स में रहती है। यहाँ संयुक्त परिवार में पली-बढ़ी गंगा, वहाँ फ़्लैट में अकेले जीवन गुज़ारने को बाध्य है। इसलिए जब भी वह अकेलेपन से उक्ता जाती है तो अपनी बोरियत मिटाने के लिए वह फ़ोन पर बातचीत करके अपना जी बहला लेती है। गंगा बहन, अपने विवाह पूर्व जब हमारे संयुक्त परिवार का हिस्सा थी, तो अक्सर मुझसे साहित्यिक बहस भी किया करती थी। मेरे निजी पुस्तकालय (जो कि एक छोटा-सा किताबों का रैक भर ही है) से वह देश-विदेश के चर्चित साहित्यकारों की पुस्तकें ले जाती थी। मसलन ओ हेनरी, चेखव, टालस्टाय, गोर्की, मोपासा, शरतचंद, प्रेमचंद, मोहन राकेश आदि की कहानियां और जयशंकर प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, पाश, दुष्यंत, अदम, मीर, ग़ालिब आदि कवियों की विशुद्ध हिन्दी साहित्यिक कविता पुस्तकें व ख़ालिस उर्दू अदब के शा’इरों की हिन्दी में प्रकाशित शेर-ओ-शा’इरी की पुस्तकें। ये सब पुस्तकें उसने खूब रूचि से पढ़ी थीं। इन लोगों द्वारा लिखे गए साहित्य पर अच्छी-खासी बहस भी अक्सर हम दोनों भाई, बहन के मध्य होती थी। शादी के बाद अब उतना पढ़ना नहीं हो पाता है, लेकिन गंगा बहन के पास अब भी मेरी कुछ किताबें और पत्र-पत्रिकाएं पड़ी हैं। मुझे गंगा के साथ साहित्यिक बहस के कई क्षण अभी भी याद हैं।
“प्रेमचन्द बहुत अच्छे कथाकार थे।” एक बार गंगा बहन चाय का घूंट पीने के उपरांत बोली।
“होंगे।” मैंने लापरवाही से कहा, “लेकिन मुझे मोहन राकेश पसंद हैं।” और मैं चाय पीने लगा।
“प्रेमचंद ने तीन सौ कहानियाँ लिखी हैं जबकि मोहन राकेश की कहानियों की संख्या पचास भी नहीं है।” गंगा बोली।
“मेरी भोली बहन कितनी बार तुम्हें समझाया है कि, साहित्य में ज़्यादा या कम लिखे का उतना महत्व नहीं है। जितना महत्व इस बात का है कि ठोस, सार्थक और उत्कृष्ट किसने लिखा है।”
“क्या प्रेमचंद उत्कृष्ट नहीं हैं?”
“मैंने ऐसा तो नहीं कहा। अच्छा एक बात बताओ, प्रेमचंद की जो उत्कृष्ट कहानियाँ हैं उनकी संख्या मुश्किल से कोई पच्चीस या तीस ठहरती होगी। लगभग ढाई सौ कहानियाँ वह न भी लिखते, तो कोई फर्क नहीं पड़ता! उनकी ख्याति के लिए कफ़न, पूस की रात, बूढी काकी, सदगति, नमक का दरोगा, पंच परमेश्वर, ईदगाह, दो बैलों की कथा, कजाकी, बड़े घर की बेटी आदि-आदि कुछेक और कहानियाँ ही ठीक हैं।”
“अरे वाह भइया, आपने तो मुंशी जी की लगभग सारी श्रेष्ठ कहानियाँ गिनवा दी हैं।” गंगा के चेहरे पर विचित्र-सी ख़ुशी थी।
“इनके अलावा इक्का-दुक्का और श्रेष्ठ कहानियां होंगी, जो पाठकों के दिमाग में रची-बसी हैं।” उस दिन बहस करते हुए एक प्याला ठंडी चाय को डेढ़ घंटे में जाके ख़त्म किया।
“कवितायेँ मर चुकी हैं या मर रही हैं। छंदों में रची कविता हो या छंदमुक्त, दोनों लगभग मृतप्राय हो चुकी हैं।” ऐसे ही एक बार भोजन करते समय कवियों पर बहस छिड़ गई। गंगा ने रोटी का कौर (टुकड़ा) तोड़ते हुए कहा।
“ऐसी बात नहीं है गंगा बहन। क़ायदे से लिखी हर चीज़ ज़िंदा रहेगी। मीर-ग़ालिब आज भी प्रासंगिक हैं। दुष्यंत और अदम की प्रगतिशील ग़ज़लों में जो धार है। उसे आज भी वैसे ही महसूस किया जाता है। जैसा कि वह अपने वजूद में आने के वक्त थी। क्या पाश और धूमिल की कविताओं को हम भुला सकते हैं? कदापि नहीं।” ख़ैर ये सब पुरानी बातें हैं और इन सबका ही ज़िक्र होता रहा तो पूरा एक उपन्यास अथवा महाकाव्य बन जायेगा। फिलहाल अतीत की बातों को छोड़कर मैं पुनः वर्तमान में लौटा। इस बार लगभग हफ़्तेभर बाद गंगा का फ़ोन आया था। अभी भी घर के सभी सदस्यों से बात करते-करते गंगा को कई बार आधे घण्टे से एक घंटे तक की बातचीत फ़ोन पर ही करनी पड़ती है। मुझे इस बात का थोड़ा संतोष है कि अब फ़ोन पर लम्बी-लम्बी साहित्यिक बहस नहीं हो पाती है।
“कैसी हो गंगा बहन?” मैंने स्नेहिल मुस्कान बिखेरी, “हमारे जीजाजी और भांजे।”
“सभी कुशल से हैं भइया, मगर कोई भी घर में टिकते कहाँ हैं?” गंगा ने मायूसी से कहा।
“मैं समझा नहीं।” मैंने हैरानी से पूछा।
“आज इतवार है मगर, तुम्हारे जीजाजी ऑफिस में ओवर टाइम कर रहे हैं।” गंगा बोली।
“ठीक तो है बहन, अतिरिक्त आमदनी से तो फ़ायदा ही है। वरना शहरों में एक आदमी की कमाई से गुज़ारा कहाँ है?” मैंने चुटकी लेते हुए कहा, “अच्छा हमारे दोनों भानजे रमेश और सुरेश कहाँ हैं?”
“सुरेश का क्रिकेट मैच है और रमेश ट्यूशन पढ़ने गया है।” गंगा ने अपनी व्यथा कही, “खैर मेरी छोडो! बताओ आप लोग कैसे हैं और क्या कर रहे हैं?”
“ईश्वर की कृपा-दृष्टि है बहन। मंझले चाचा के साथ ताश खेल रहा हूँ।” मैंने जम्हाई लेते हुए कहा, “और बगल में हमेशा की तरह विक्रम भइया और छोटे चाचा जी बिसात बिछाकर शतरंज खेलने में व्यस्त हैं। मगर छोटे चाचाजी को पता नहीं है विक्रम भइया का घोड़ा ढ़ाई की जगह साढ़े तीन घर चलता है।” मैंने हँसते हुए कहा और अगला पता फैंक दिया।
“झूट बोलता है दीदी ये।” विक्रम भाई ने चाचा का प्यादा काटते हुए कहा ही था कि तभी प्लास्टिक की एक गेंद आकर मंझले चाचाजी के गाल पर लगी। चश्मा टूटते-टूटते बचा।
“अबे गोलू के बच्चे, घर को फ़िरोज़शाह कोटला का मैदान बना रखा है, जो यहाँ क्रिकेट खेल रहा है।” मैंने अपने लड़के को डांटते हुए कहा, “अभी तेरे शाट से मंझले दादा जी का चश्मा फूट जाता।”
“ख़बरदार जो तूने मेरे पोते को डांटा तो …” कहकर चाचाजी ने बॉल गोलू की तरफ़ उछाल दी और ताश का अगला पता मेरे आगे ज़मीं पर फैंक दिया।
“आपने ही सर में चढ़ा रखा है बच्चे को।” मैंने मोबाईल पर पुनः कहा, “सुन रही हो न गंगा बहन, चाचाजी के सामने अपने बच्चे को डांट भी नहीं सकता।”
“बहुत बढ़िया भैया। असल में आप लोग ही जीवन जी रहे हैं।” गंगा ने बड़ी जीवंतता के साथ कहा।
“कुछ खास बात थी क्या?” मैंने पुनः पूछा।
“नहीं आप सब लोगों से बात करने की इच्छा हो रही थी।” गंगा ने कहा, “ज़रा भाभी से बात करवा दो भइया।”
“ओके, ज़रा होल्ड करो। तुम्हारी भाभी रोज़ की तरह टी.वी. पर सुबह से ही सास-बहु के सड़े से ड्रामे देख रही है। काम की न काज की, हमेशा दोस्त टी.वी. की।” मैंने शीला के लिए कहा।
“लेकिन सही कहावत तो ‘दुश्मन अनाज की’ है।” गंगा ने सही कहावत की जानकारी दी।
“जानता हूँ बहन, लेकिन समय के साथ-साथ कहावत भी बदलनी चाहिए। जैसे ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ की बजाये ‘हाथी के मुँह में खीरा’ होना चाहिए।” मैंने हंसी का माहौल बनाने की कोशिश की। इसका असर यह हुआ कि फ़ोन पर गंगा के अलावा मेरे साथ अगल-बगल में बैठे सभी लोग हंस पड़े। तत्पश्चात मैंने अपनी धर्मपत्नी जी को पुकारा, “शीला … तुम्हारे लिए गंगा बहन का फ़ोन है।” और श्री मति जी को फ़ोन थमाने के उपरान्त मैं पुनः ताश खेलने में व्यस्त हो गया। जबकि बगल में विक्रम भैया और छोटे चाचा जी गंभीरता पूर्वक शतरंज की बिसात पर झुके हुए थे।
“अरी गंगा बहन तुम्हे पता है संध्या ने अपने जुड़वाँ बच्चों में से एक बच्चा अपने भाई को गोद दे दिया।” शीला ने फ़ोन पर गंगा को बड़े ही ख़ुफ़िया ढंग से जानकारी दी।
“कब हुआ उनके जुड़वां बच्चा!” गंगा हैरान थी।
“परसों ही।” शीला ने अगला रहस्योद्घाटन करते हुए कहा।
“ताजुब है, विक्रम भइया ने भी मुझे नहीं बताया कि उसकी साली जुड़वां बच्चे हुए हैं।” गंगा ने जैसे अफ़्सोस व्यक्त किया, “अब तो मैं पराई हो गई हूँ। मुझे क्यों आप लोग अपने सुख-दुःख में शामिल नहीं करते?”
“अरे मैं विक्रम की साली की बात नहीं कर रही।” शीला झुंझलाहट में भरकर कहा।
“फिर किसकी बात कर रही हो?” गंगा हैरान थी।
“मैं तो टीवी सीरियल ‘दिया और बाती’ की नायिका सन्ध्या राठी की बात कर रही हूँ।” शीला ने रहस्य से पर्दा हटते हुए कहा।
“धत तेरे की! भाभी तुम नहीं सुधरने वाली। मैं तुमसे फ़ोन पर घर के हालचाल पूछ रही हूँ और तुम टीवी सीरियलों की दुनिया में खोई हो। भइया ठीक ही कहते हैं ‘हमेशा दोस्त टीवी की'” गंगा ने मूड अपसेट हो जाने अंदाज में कहा, “अच्छा, खाने में आज क्या-क्या बनाया है? इधर-उधर की कई बाते गंगा और शीला ने आपस में की। लगभग पंद्रह मिनट गुज़र गए। इसके पश्चात एक हाथ से होता हुआ मोबाइल दूसरे हाथों में पूरे दो मंज़िलों का सफ़र तय करता रहा। प्रथम तल पर मेरा और मंझले चाचा का परिवार, ताऊ-ताई और मम्मी-पापा रहते हैं। और बैठक में सभी परिवारों के बच्चे पढ़ते-खेलते, खाते-पीते, रोते-धोते, सोते-जागते और संयुक्त रूप से टी.वी. देखते रहते हैं। दूसरे तल पर बाकि सभी भाई-भाभियाँ, बड़े चाचा और छोटे चाचा का परिवार निवास करता है। इस संयुक्त परिवार की नीव पूज्य दादाजी ने बरसों पहले डाली थी। दादा-दादी अब केवल बैठक में फोटो बनकर दीवार पर टंगे हैं। जिन पर चन्दन के हार पड़े हैं।
“कैसी हो गंगा बेटी?” हमारी माताश्री के हाथों में मोबाइल आया पुनः गंगा के हालचाल पूछने से बातचीत क्रम शुरू हुआ।
“अब बुढ़ापे में क्या होना है? जबसे डाक्टर ने शुगर बताई है।मुँह का सारा स्वाद चला गया है। मीठा खाने को दिल करता है मगर खा नहीं सकते। तेरे चाचा जो पहरेदार बनकर बैठे रहते हैं सर पर। ऊपर से ब्लेड प्लेसर भी रहता है कभी-कभी।”
“अरी भगवान … ब्लड प्रेशर बोलते हैं, ब्लेड प्लेसर नहीं। क्या चहरे की हज़ामत बनानी है। इधर ला फ़ोन।” बगल में ही खड़े पिताश्री ने माताश्री की ग़लत अंग्रेजी पर झुंझलाते हुए कहा और मोबाइल अपने कानों से लगा लिया।
“अब हमसे तो न बोली जावे ठीक इन्ग्रेज़ी। हम तो ऐसे ही बोलेंगे ब्लेड प्लेसर।” माताश्री ने भी अपनी भड़ास निकली तो फ़ोन के दूसरी तरफ गंगा भी खिलखिलाकर हंस पड़ी।
“तुम होती अंग्रेज़ों के टाइम पे तो महात्मा गांधी को आंदोलन करने की ज़रूरत न पड़ती। तुम्हारी अंग्रेजी सुनकर ही अंग्रेज़ भाग जाते हिंदुस्तान से।” पिताजी ने माताश्री को अपने अनमोल वचन सुनाते कहा।
“चाचाजी, आप लोगों की नोक-झोंक कभी ख़त्म नहीं होती। धन्य हैं आप लोग।” गंगा ने मुस्कुराते हुए कहा।
“तुम्हें क्या कह रही थी तुम्हारी चाची कि, मीठा नहीं खा सकती? सरासर झूठ बोलती है तेरी चाची, जहाँ मेरी नज़र पलटी नहीं की, वहाँ घपाघप दो-चार चम्मच चीनी मुँह में ठूस लेती है।” पिताश्री फ़ोन पर ही शुरू हो गए, “तेरी चाची तो सुधरेगी नहीं गंगा, अगर पढ़ी-लिखी होती तो हमारे बच्चे पढाई में कमज़ोर नहीं रहते … आज गोलू का बाप डिप्टी कलेक्टर होता। तेरे मंझले चाचा के साथ ताश न खेल रहा होता।” बाबूजी ने वही रटी-रटाई बात दोहरा दी। जो अक्सर वह मिलने-जुलने वालों से कहा करते हैं। पिताजी स्वयं एक रिटायर्ड क्लर्क हैं, सरकारी नौकरी से। उनको शुरू से ही मुझसे शिकायत रही कि एस.एस.सी. की कोई प्रतियोगिता परीक्षा पास करके मैं भी आसानी से कोई सरकारी नौकरी पा लेता। हालांकि प्राइवेट कम्पनी में मैं एक इंडिज़ाइन कम्प्यूटर ऑपरेटर हूँ और ठीक-ठाक कमा लेता हूँ। ताऊ-चाचा सब सरकारी नौकरी में रहे हैं। इसलिए उन्हें लगता है, वर्तमान पीढ़ी मेहनती नहीं है। अब पिताश्री को कौन समझाए सन 2000 ईस्वी तक आते-आते, आज परिस्थितियाँ काफ़ी भिन्न हो गई हैं। एक मामूली सफाई कर्मचारी के लिए भी मंत्री जी की सिफारिस चाहिए। जैसे कि मंत्री जी का यही काम रह गया है कि कौन शख़्स अच्छी झाड़ू लगा सकता है? वैसे सरकारी नौकरी में सबसे मज़े की नौकरी मंझले चाचा की है। सी.पी.डब्ल्यू.डी. (केंद्रीय लोक निर्माण विभाग) में लग गए हैं। सारे शनिवार, रविवार ताश खेलने में ही उनका वक़्त बीतता है। हम दोनों ताश के माहिर खिलाड़ी हैं। इसलिए हम दोनों चाचा-भतीजे की आपस में खूब पटती है।
पिताश्री से तमाम प्रवचन और शिकायतें सुनने के बाद गंगा का फ़ोन गया आदरणीय ताऊजी के हाथ में। ताई जी हमेशा उनके पास ही बैठी कुछ न कुछ काम कर रही होती हैं। इस समय पास ही आचार के मर्तबान धूप में रखे हैं। ताई जी बीच-बीच में उन्हें हिला-डुला कर देख रही हैं। बगल में ही थाली में एक सीताफल रखा है। और चाकू भी। ताई जी कभी खाली नहीं रहती हैं। पूरे घर-परिवार के लिए सब्जियां काटना। दाल-चावल में कंकर-पत्थर बीनना इत्यादि काम वही पूर्ण दक्षता के साथ आज भी वही करती हैं।
“हाँ बिटिया कैसी हो?” भावुक होते हुए ताऊ जी बोले।
“ठीक हूँ बाबूजी … और आप लोग।” गंगा भी भावुक हो उठी।
“अब बुढ़ापे में क्या ठीक होना है? जीवन के आख़री पड़ाव में हैं। जब ईश्वर चाहेगा, चल देंगे।”
“ऐसी बाते मत करो! और मम्मी जी क्या कर रही हैं?”
“आचार की देख-रेख कर रही है। सीताफल बनेगा तो उसको काटने की तैयारी भी चल रही है। तेरी माँ ने कुछ देर पहले तेरी छोटी चाची के साथ आलू-प्याज़ काटे थे। चाची आलू-प्याज़ ले गयी और सीताफल सामने रखकर, सबके लिए चाय बनाने चली गई है। तुझे तो पता ही है, मैं हार्ट पेसेंट हूँ! दवा लेना भूल जाता हूँ, तो कोई न कोई याद दिला देता है। अभी कुछ देर पहले तेरा छोटा चाचा दवाई खिला के गया है। अब वह विक्रम के साथ बैठा शतरंज खेल रहा है। फ़िल्में देखना और शतरंज खेलना, यही दो शौक पाल रखे हैं छोटे ने। साथ रहने का यह फ़ायदा यह है कि औरों को हँसता-खेलता देखकर जीने की चाह बढ़ जाती है। वरना इस उम्र के लोग अकेलेपन का शिकार होकर राम नाम की माला जपते, अपनी मृत्यु का इन्तिज़ार करते रहते हैं। तेरी माँ का टाइमपास भी घर के काम-काज करके हो जाता है! वरना अकेली बैठी बोर हो जाये। लो अपनी माँ से बात करो।” कहकर ताऊजी ने सीताफल काटती अपनी धर्मपत्नी को फ़ोन पकड़ा दिया।
“माँ ठीक हो।”
“हाँ बेटी … मेरे नाती कैसे हैं और जवाई जी क्या कर रहे हैं?”
“सब ठीक हैं माँ … तुम्हारे जवाई जी ओवर टाइम कर रहे हैं। एक नाती क्रिकेट खेलने गया है तो दूसरा ट्यूशन पढ़ रहा है।” गंगा ने वही रटे रटाये शब्द दोहराये, “और मैं अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही हूँ।”
“अरे क्या वही बोरिंग बाते करके गंगा को पका रहे हो। इधर दो फ़ोन।” छोटे चाचा जो शतरंज की एक बाज़ी करने के बाद बाथरूम करने के बहाने उठे थे। ताई जी को रोने-धोने की बाते करते देख खुद को न रोक सके, “तुझे पता है कल ही जो फ़िल्म रिलीज़ हुई उसमें इरफ़ान का काम अच्छा है।” और हाल ही में रिलीज़ हुई तमाम फ़िल्मों की कहानियां शुरू कर दी छोटे चाचा जी ने, “सलमान को इतने साल हो गए, मगर अभी तक एक्टिंग करनी नहीं आई। हीरो तो ऋतिक और आमिर हैं। अजय देवगन …”
“क्या छोटे हर वक्त फ़िल्मी बकवास झाड़ते रहते हो या फिर शतरंज की बाज़ी खेलते रहते हो! कभी तो ज़िंदगी में सीरियस रहा करो।” छोटे चाचा को डांट कर बड़े चाचा ने फ़ोन हथिया लिया और गंगा को किसी महान दार्शनिक की भांति उपदेशात्मक बातों घुट्टी पिलाने लगे, “गंगा बेटी मानव जीवन का कुछ लक्ष्य होना चाहिए। मानव का तन, बड़े भाग से मिलता है। इंसान की कर्मयोनी है, तो जानवर की भोगयोनी। केवल खाने, पीने और कमाने के लिए ज़िंदा रहना ही इंसान का जीवन नहीं है। ये काम तो जानवर भी कर लेते हैं। दुनिया में इंसान की औसत आयु साठवर्ष रह गई है। कुछ लोग अपवादवश … सत्तर, अस्सी, नब्बे या सौ बरस भी जी लेते हैं लेकिन, जीवन की सार्थकता दीर्घ जीवन जीने में नहीं बल्कि उद्देश्यपूर्ण अल्प जीवन जीने में है। सिकंदर महान हो … भगत सिंह हो या फिर स्वामी विवेकानंद। इन सबका जीवनकाल भले ही अल्प रहा हो, लेकिन इन्होने उद्देश्यपूर्ण जीवन जिया और इनकी ख्याति चिरस्थाई है। काल के कपाल पर इनका नाम दर्ज़ हो चुका है।”
“बंद करो अपना ये अखण्ड पाठ, औरों को भी बात करनी है।” बड़ी चाची ने अपने पतिदेव को दोनों हाथ जोड़कर चरणों की ओर झुकने का स्वांग किया जैसे सास्टांग प्रणाम कर रही हो, फिर अचानक एक झटके से फ़ोन छीन लिया। अगल-बगल खड़े सभी जन खिल-खिलाकर हंसने लगे। बड़ी चाची ने प्रवचन जारी रखा, “ज़रा बच्चों को पढ़ा दो। छुट्टी के दिन कुछ अपना भी जीना सार्थक कर लो हिटलर महाराज।”
“हिटलर कौन बोलता है मुझे।” बड़े चाचा जी बौखलाए और भड़कते हुए बोले।
“सभी बोलते हैं। जिन पर तुम उपदेश झाड़ा करते हो।” बड़ी चाची ने कहा।
“तुमसे बड़ा हिटलर कौन होगा? जो अपने पतिदेव का जीना दुश्वार किये हो!” बड़बड़ाते हुए बड़े चाचाजी अंदर चले गए।
“और सुना बेटी! तेरे चाचा ने ज़ियादा बोर तो नहीं किया।” चाची ने फ़ोन पर गंगा से पूछा।
“अरे चाची जी, चाचा तो परम ज्ञानी आदमी हैं। उनका इस तरह उपहास मत किया करो। उनकी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं।” गंगा ने बड़ी आत्मियता से कहा।
“दूर के ढोल सुहावने लगते हैं बेटी।” चाची ने उसी अंदाज़ में कहा। फिर दोनों ने दस-पन्द्रह मिनट तक इधर-उधर की खूब बातें की। बड़ी चाची के उपरांत सारी चाचियों ने फ़ोन पर आधा घण्टा से ऊपर बातें की। तब कहीं राधा भाभी का नंबर आया।
“कैसी हो राधा भाभी?” गंगा ने पूछा।
“एक विधवा के लिए जीना क्या मरना क्या? बस वक्त कट रहा है।” राधा भाभी ने कहते हुए अपने मृत पति अशोक को याद किया। जो हमारे परिवार के सबसे बड़े भाई थे और ताऊजी के एकमात्र सुपुत्र। ताऊजी के हार्ट अटैक का कारण भी पुत्र की आकस्मिक दुर्घटना में मौत थी। गंगा भी उस दिन खूब रोई थी। पूरे परिवार में दो-तीन महीने तक मरघट का सा सन्नाटा छाया रहा था। ताऊ जी और ताई जी को तब पूरे परिवार ने एक पल भी अकेला न छोड़ा था। जिस कारण इकलौते पुत्र की मृत्यु के बाद भी ताऊजी और ताईजी सम्भल गए थे और उनमें जीने की चाह भी बनी रही। राधा भाभी की कोई औलाद नहीं है। वो हमारे बच्चों को ही अपने बच्चों की भांति स्नेह करती है। वैसे तो सभी भाभी को खुश रखने का प्रयास करते हैं, मगर कभी-कभी आज भी वो भाई को याद करके भावुक हो जाती है।
अंत में फ़ोन पुनः मेरे हाथों में आ गया।
“अरे गंगा बहन, ऐसे ही सबसे बातें करती रहोगी तो सुबह से शाम हो जाएगी! तुम्हारे फ़ोन का सारा बैलेन्स एक ही काल में ख़र्च हो जायेगा।” और बातचीत में ध्यान भटकने के कारण, ज़ल्दबाज़ी में जो ताश का पत्ता मेरे हाथ से नीचे गिरा तो मंझले चाचा ख़ुशी से चींखे, “भतीजे ये लगी तेरह की सींप!”
“भइया आप लोग नहीं समझोगे संयुक्त परिवार का महत्व क्योंकि आप लोग इकट्ठा रहते हैं। हर वक्त हँसते-गाते और खेलते रहते हैं, और एक मेरा ससुराल है—जहाँ सास-ससुर गाँव में खेती-बाड़ी देखते हैं। जेठ-जेठानी एक ही शहर में अलग रहते हैं। पिछले साल देवर-देवरानी भी लड़-झगड़ के अलग नगर जा बसे हैं! और तो और हमारी नन्दिया भी राखी बँधवाने तक नहीं आती हैं। हम तो रिश्तेदारों की सूरत देखने को तरस गए हैं।” कहते-कहते गंगा की रुलाई छूट पड़ी, “शहरों में अपने-अपने फ्लैटों में कैदियों का सा अभिशप्त-एकाकी जीवन जीने को बाध्य हैं हम लोग। चारों तरफ कंकरीट और सीमेंट के जंगल हैं। सड़कों पर दिन-रात भागता शहर। न जाने हम किस दिशा में जा रहे हैं। इंटरनेट पर हम दुनिया-जहान से जुड़ जाते हैं मगर अपने ही पड़ौस और क़रीबियों से दूरियाँ बनाये हुए हैं।” आगे के शब्द गंगा के मुख में ही रह गए थे। बस फ़ोन पर उसकी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी।
“तेरे इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर मेरे पास भी नहीं हैं गंगा बहन। तू मत रो! वरना अभी हम सारे के सारे जने तुम्हारे घर पहुँच जायेंगे। और तुम खाना पका-पका के थक जाओगी।” कहा तो मैंने गंगा को हसाने के उद्देश्य से था मगर बहन के अकेलेपन को महसूस करते हुए मेरी भी आँखों से आंसुओं की दो बूंदें तैर गई।