खामोश किताबें
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खामोश पड़ी यह किताबें
दिमाग के कल पुर्जे खोलती
कभी हमें लड़ना सिखाती
कभी चुप रहना बताती
कभी समाज का डर भगाती
हमें हमारे अधिकार बता
हमारी रातों की नींद उड़ाती
खुद मेज पर सो जाती
ना कभी हंसती ना कभी रोती
फिर भी जिसके हाथ आती
उन्हें हंसाती कभी रुलातीं
कभी पन्नों के पंख देती है
ऊंची उड़ान भरने को
खुद मेज पर सो जाती है
खामोश पड़ी यह किताबें
पन्नों के पंख लगाती
अपना सब कुछ देकर
गगन की बुलंदियों पर बैठाती
हमें शिखर पर पहुंचा
खुद रद्दी के भाव बिक जाती
मौलिक एवं स्वरचित
मधु शाह