क्या करूँगा उड़ कर
क्या करूंगा उड़कर
मुझे जमीं पर रहने दो
उड़ते परिंदों को मैंने
धरती पर उतरते देखा
नीला था यह गगन पर
दाने दाने भटकते देखा
भूख प्यास सब है यहीं
तृप्ति का आँचल यही है
क्या करूंगा उड़कर…
पाकर धन देख लिया
अपने मकां का शिखर
खंडहर खंडहर हो गया
सपनों का महल तिमिर
रह गए हैं बस दो प्राणी
सुनते-सुनते अमृत वाणी
क्या करूंगा उड़कर…
आच्छादित नभ में पसरे
जहाज़ वो सब मैंने देखे
अर्श से फर्श की गवाही
धरती पर ही यान उतरे
आये घूम सात समुंदर
सीप- मोती यहीं बिखरे
क्या करूंगा उड़कर..
माना खुला आकाश है
उत्कर्ष का यह पैमाना
काम की क्या ऊंचाई
छलके न जब पैमाना
पीकर हमने फेंक दिये
वो साकी, वो पैमाना।
क्या करूंगा उड़कर…
गिरवी पड़ी यश कीर्ति
ब्याज़ पर ब्याज़ ऋण
मुफलिसी देख तमाशा
घर न चौखट है उऋण
उधारी आभासी जग में
पग पग बिंधे हुए हैं कण।
क्या करूंगा उड़कर..
मुझे जमीं पर रहने दो।
*सूर्यकांत