कोरे पन्ने

आज एकांत में कुछ उदास अक्षर
गुनगुनाये थे
‘कहाँ रहती हो गुम”
कलम से शिकायत करने आये थे |
काग़ज़ भी बिन लहरों के दरिया सा
कोरा था अल्फाजों के अश्क बिना
कोरे पन्ने हर शिकायत पर
भीगी सी मुस्कुराहट लाये थे |
बुझे दिए की लौ से लम्हे
जाने क्यों जीने को फड़फड़ाए थे
पन्नों को देख कोरा
उँगलियों तक मचल कर आये थे |
हिरासत में जीते
कुछ ख़्वाबों नें
परिंदा बनने की कोशिश में
पंख भी लगाए थे |
जी लूं उस आसमान की
तन्हाई को इस कदर
कि ज़िन्दगी ने हर कदम
पर पहरे बिठाए थे |
फासलों से रू-ब-रू
मुलाक़ात हो गयी
कि हकीक़त ने आज
कुछ नए दांव दिखाए थे |
जुदा हुई थी रूह जिंदगी से
आज कुछ इस तरह
कि लफ्ज़ अश्क बन
कोरे पन्नों पर उतर आये थे |
…….डॉ सीमा ( कॉपीराइट )