*कार्यक्रमों में श्रोता का महत्व【हास्य व्यंग्य】*

कार्यक्रमों में श्रोता का महत्व【हास्य व्यंग्य】
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दुर्भाग्य से श्रोता के महत्व का अभी तक सही प्रकार से मूल्यांकन नहीं हो पाया है । जबकि वह न केवल हर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाता है बल्कि समस्त कार्यक्रम की सफलता का भार भी उसके ऊपर ही रहता है । हास्य कवि सम्मेलन को ही ले लीजिए ! अगर श्रोता न हँसे तो दो कविताएँ सुनाने के बाद हास्य-कवि को पसीना आने लगेगा और वह या तो अपनी क्षमता पर संदेह करने लगेगा अथवा यह सोचने पर विवश हो जाएगा कि उसके विरुद्ध ऐसा गंभीर कुचक्र किन लोगों ने रचा है ? श्रोता की एक हँसी हास्य-कवि को सफलता के शीर्ष पर ले जाती है । गंभीर कविताओं के श्रोता और भी मुश्किल से मिलते हैं। उनके चेहरे को देखो तो लगता है किसी भारी-भरकम आत्म-चिंतन में डूबे हुए हैं । ऐसे लोगों को गंभीर कविता सुनाई जाए अथवा न सुनाई जाए ,वे गंभीर ही रहते हैं । गंभीर आते हैं, गंभीर चले जाते हैं । लेकिन उनकी गंभीरता कितनी बहुमूल्य है ,क्या इस बात को वक्ता गंभीरता से कभी समझ पाए ?
कवि सम्मेलन हो या फिर कोई अन्य कार्यक्रम ,सभी में सारा परिश्रम श्रोताओं को बुलाने का रहता है । वक्ता को बुलाने में आजकल दो मिनट लगते हैं । फोन कीजिए, वक्ता तैयार । उसके बाद एक महीने तक श्रोताओं के लिए ही पापड़ बेलने पड़ते हैं। कई बार भारी-भरकम प्रचार के बाद भी श्रोता नहीं आते हैं और कार्यक्रम असफल हो जाता है । जिन कार्यक्रमों में श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ती है ,उनसे आयोजक गदगद हो जाते हैं और वक्ता को जो तृप्ति मिलती है वह तो शब्दों से परे होती है । अच्छे श्रोता देखकर वक्ता का मन खिल खिल उठता है।
कई बार ऐसे श्रोता पल्ले पड़ जाते हैं जो वक्ता के वक्तव्य को बिल्कुल भी नहीं समझ पाते । लेकिन ऐसे श्रोताओं के सामने भी वक्ता को इस निपुणता के साथ अपना वक्तव्य प्रस्तुत करना होता है मानो उसके श्रोता बहुत समझदार हैं । यही भूमिका श्रोता भी निभाते हैं। यद्यपि उनकी समझ में कुछ नहीं आता लेकिन सिर इतने बढ़िया ढंग से हिलाते हैं कि लगता है इनसे ज्यादा इस दुनिया में वक्ता के वक्तव्य को समझने वाला दूसरा और कोई नहीं है । वक्ता की जान-पहचान श्रोताओं को एकत्र करने में विशेष भूमिका निभाती है । अगर वक्ता सौ लोगों को फोन करके व्यक्तिगत तौर पर आमंत्रित कर दे, तब उनमें से पचास लोग अवश्य आ जाते हैं ।
कई कार्यक्रमों में आकर्षण कुछ भी नहीं होता लेकिन श्रोता इसलिए जाते हैं क्योंकि बॉस का कार्यक्रम है । ऐसे में श्रोता अपनी ड्यूटी निभाते हैं । इस ड्यूटी में वक्ता के भाषण पर बीच-बीच में तालियाँ बजाना भी शामिल रहता है । ऐसे में तालियों का मतलब प्रशंसा नहीं होता । यह केवल इतना बताने के लिए बजाई जाती हैं कि वक्ता समझ ले कि सामने बैठे हुए श्रोता अपना कर्तव्य भली-भाँति निभा रहे हैं ।
श्रोता आमतौर पर सीधे-साधे भले लोग होते हैं । वक्ता को कार्यक्रम से पहले और बाद में श्रोताओं का हार्दिक आभार प्रकट करना चाहिए । हो सके तो कुछ अच्छे श्रोताओं को “श्रोता श्री” जैसे पुरस्कार भी दिए जा सकते हैं । इससे कार्यक्रमों में श्रोताओं का आकर्षण बढ़ेगा । अच्छे श्रोता बनने के लिए उनके मन में चाव उत्पन्न होगा और कार्यक्रमों को सफल बनाने में उनका योगदान अधिक प्रभावी हो सकेगा।
पुराने जमाने में श्रोता सीधे-साधे होते थे । दरी पर बिठा दिया और तीन घंटे तक दरी पर बैठे-बैठे ही मुस्कुराते रहते थे । आजकल प्लास्टिक की कुर्सियों से भी प्रसन्न नहीं होते । प्रथम श्रेणी के श्रोताओं को बुलाने से पहले गुदगुदे सोफों का प्रबंध करना पड़ता है तब जाकर वह दो घंटे टिक पाते हैं । कई आयोजनों में वक्ता को किसी खास कमरे में ले जाकर काजू-किशमिश-मिठाई-आइसक्रीम आदि से जलपान कराया जाता है, जबकि श्रोताओं को भीड़ समझकर केवल चाय-बिस्कुट में निपटा दिया जाता है। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए ।
अंत में एक कुंडलिया प्रस्तुत है:-
श्रोता को करिए नमन , चरणों में सौ बार
हँस दे तो महती कृपा , कवि का बेड़ा पार
कवि का बेड़ा पार , नहीं तो सिर को धुनिए
श्रोता को दें दाद , मान देने को चुनिए
कहते रवि कविराय , टिका श्रोता पर होता
कवि सम्मेलन फ्लॉप ,नहीं हँसमुख यदि श्रोता
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451