कविताश्री

आदिकवि कंठ, कारक क्रौच से कविता निकल
सतत् बहे कविता सरिता की धारा सी अविरल !
समाये काव्य,कथा,इतिहास,शास्त्र,साहित्य सकल
कहे महानायक चरित,महाद्वन्द,मनोभाव कोमल !
घोलती रस भक्ति, श्रंगार,वीर और बहु रसायन
कभी लोकअभिव्यक्ति तो कभी लोक पलायन !
राजप्रशस्ति मद बांधे राजदरबारी कवि चारण
बेबस,व्याकुल, व्यथित शरणागत के भी शरण !
प्रेम-श्रंगार,रति, नायिका भेद वर्णन नखशिख
करे महामंडित राज-राजे वीरता,प्रताप लिख !
हो बंधनमुक्त कवित्त राजदरबारी पिंजड़ों से
कविताकमल फिर आतुर खिलने कीचड़ों से !
पुनः निकली तुम पद गढ बढ़ रख पथ पद
रीतिरस रिक्त रचती सजती कोमलकांत पद !
फिर तुम समय-समय,समय समझती चली
और कल्पनाएं छोड़ यथार्थ में ढलने लगी !
कभी वाग्देवी जैसी मानी,पूजी जाती साथ
आज ऑखों में पट्टी बधी लिए तराजू हाथ ।
अब तुम न्यायदेवी का अवतार हो लगती
वंचितों,विचलितों को जगाने स्वयं हो जगती !
बिंब,प्रतिबिंब,प्रतीक, प्रतिमान उलट है डाले
औचित्य,उत्तरदायित्व, मर्म के नये है उजाले !
रस,छंद,अलंकार आदि आभूषणों का श्रंगार
छोड़ दिखे स्पष्ट,सटीक,सपाटबयानी का ज्वार !
कभी पढ़कर कविता पाठक कहते थे वाह !
आज पढ़ मर्माहत संवेदनाओं से भरते आह !
कभी कर्णप्रिय,कोमल,कोयल रसीली,सुरीली
आज कसौटियों से कसी यथार्थ की बोली !
हो सुख-दुख,आह्लाद-अवसाद की अभिव्यक्ति
तुम जनचेतना, सामाजिक बदलाव की शक्ति !
कविता तुम हो स्वछंद परिभाषा की परिधि से
सृजनसजी अद्भभुत,अमूल्य मानवीय निधि से !
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मौलिक एंव स्वरचित : कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या : २१. जीवनसवारो,जून २०२३.