कल्पित ०४
1. जीवन का राग
जीवन का राग सङ्गीत है ,
जीवन का अस्तित्व अतीत है ।
प्रकृति रूपी अपनी धरा ,
सम्पदा जहाँ भरपूर है ।
मानवता का जीवन ही ,
मानव कल्याण का स्वरूप है ।
मानव , मानव के हमदर्दी ,
यहीं प्रेम और आस है ।
प्रकृति का यहीं अलङ्कृत काया ,
अपना – अपना रूप है ।
पर्वत – पहाड़ – मैदान – सरोवर ,
यहीं हिमालय का रूमानी है ।
जहाँ विधाता की अद्भुत माया ,
यहीं विधान अविनाशी अभेदी है ।
2. ऐ नर्स
स्वास्थ्य क्षेत्र की भूमिका
जनमानस का कल्याण है
और मिलता बहनों का प्यार
जहाँ साहस है उनकी गाथा
मानवता कर रही चित्कार
व्याकुल हो रही मन तेरे हैं
न कोई दर्द न कोई आराम
ज़िन्दगी बस है देश के नाम
तुम्हारी इंसानियत पर नाज है हमें
तू फरिश्ता नहीं , माँ का रूप हो
गोली – दवा – सुई के मोहताज है हमें
तू कर्तव्यनिष्ठा का चरमोत्कर्ष हो
तू अपारदर्शी और दर्पण हो
जहाँ सम्मान – सुरक्षा बचाएँ रखती हो
तू परिचारिका सेवा का आदर्श हो
तुम एक वरदान नहीं , जगदीश्वर हो
3. आम मञ्जरी
मौसम है बड़ा सुहाना
खेतों में सरसों की डाली
जहाँ है आम मञ्जरी का बहाना
कितना कोमल कितना सुन्दर !
मधुकर कर मधुमय निराली
जहाँ है सुन्दर – सुन्दर हरियाली !
व्योम में मेघ घटा का आबण्डर
बच्चों का टोली टिकोला का लिप्सा
खट्टी – मीठी टिकोला का मजा
छोटे – छोटे कितने मोहक
कहीं तरुवर की छाया
कहीं पिक की कूक की बोल
कहीं परिन्दा का बसेरा
सुन्दर की लालिमा आकृति
ज्येष्ठ – आषाढ़ का आवना
मधुर – मधुर आम के लुत्फों का महीना
अद्भुत सुन्दर मनोरम – सा
4. सब भारत एक हो
भारत देश की आजादी
शहीदों की शहादत की कुर्बानी
वीर – वीराङ्गना की अटूट कहानी
अमर है , अमर है , अमर है ।
भारत सोने की चिड़िया
नालन्दा जैसा विश्वविद्यालय रहा
बौद्ध – जैन – हिन्दू सम्प्रदाय
अमर है , अमर है , अमर है ।
रामायण – महाभारत जैसा महाकाव्य
जहाँ है आदर्शमूलक का ज्ञान
पितृवंशिकता – मातृवंशिकता का सम्बन्ध
अमर है , अमर है , अमर है ।
महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रबापू
अशोक महान जैसा शासक हो
कृषि के भगवान किसान ही
अमर है , अमर है , अमर है ।
भारत ही कृषि प्रधान का गौरव
जहाँ होती और गुरु की महिमा
” सब पढ़े , सब बढ़े ” का सपना
” सब भारत एक हो ” की अवधारणा
अमर है , अमर है , अमर है।
5. ओ मेरी माँ
माँ तेरी महिमा अपरम्पार
संसार की जननी है तू
सब दुख – दर्द हर लेती है तू
तू ही पालनकर्ता सर्वेश्वर
तेरी छाया तरुवर की छाया है
तेरी चरणों में ब्रह्माण्ड की काया है
प्रथम गुरु आप ही कहलायों
जहाँ मिलती है निस्वार्थ की भावना
तेरी करुणा पृथ्वी से भारी है
अपनी माँ को क्यों भूल जाते लोग ?
उनके करुणा को क्यों टेस पहुंचाते लोग ?
एक माँ सौ बेटों को पाल लेती है
लेकिन एक बेटा को माँ भी बोझ दिखती है
क्यो प्राणप्रिया ही सर्वस्व दुनिया है ?
आखिर क्यों ?, आखिर क्यों ?, आखिर क्यों ?
क्या यही ममता का प्रतिफल है ?
तू ही मेरी मदर टेरेसा की महिमा
तू ही मेरी जन्नत की दुनिया है
मैं तेरा संसार हूँ , तू हमारी छाया
ओ मेरी माँ , ओ मेरी माँ , ओ मेरी माँ
6. हयात इन्तकाल
दुनिया का हयात इन्तकाल
क्यों कर रहे हाहाकार ?
क्या कोरोना का महामारी ?
या कृतान्त का साम्राज्य
पवन का पवनाशन प्रकोप
प्राणवायु माहुर – सा
इसका उत्तरदायी कौन !
क्या भलमनसाहत ?
क्या मानुष का अपरिहार्यता ?
आबादी – दौलत – बीमारी
असामयिक परिवर्तन क्यों ?
क्यों प्रभञ्जन की गलिताङ्ग दशा ?
मख़लूक रक्तरञ्जीत क्यों ?
जीवनसाधन क्षणभङ्गुर क्यों ?
7. देश की धरा
पवन – धरा – नीर हरियाली ,
प्रातः कालीन का अनातप हो ।
सागर – नदी – झील का सङ्गम ,
पारितन्त्रीय अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हो ।
जैविक – अजैविक सङ्घटको का ही ,
प्रकृति का अपना प्रतिमान हो ।
कहीं सूखा कहीं अतिवृष्टि छाया ,
किसानों की अपनी विवशता हो ।
अवनयन व जनसङ्ख्या का ग्रास ,
संसाधन न्यूनीकरण दोहन हो ।
भौतिकवादी बन रहा अभिशाप ,
नगरीय व औद्योगीकरण उत्कर्ष हो ।
पर्यावरण का विकासोन्मुख ,
प्रायोगिक – मौलिकवाद का अनुशीलन हो ।
नैसर्गिक और मानव निर्मित ,
मानव हस्तक्षेप की धारा हो ।
पशु – पक्षी लुप्ते कगार पर ,
जहाँ मशीनीकरण भक्षक हो ।
वसन्त ऋतु दिवस की बहार ,
जहाँ नूतनवत् कलियाँ हो ।
जीव जन्तु पर्वत जलवायु मैदान ,
जैवमण्डल का प्रकाशसंश्लेषण काया हो ।
पर्यावरण का संरक्षण उद्देश्य ,
जहाँ सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता हो ।
पर्यावरण ही हमारी संस्कृति ,
जहाँ अपना देश की भूमि धरा हो ।
8. स्वतन्त्रता की बजी रणभेरी
एकता – अखण्डता – समरस भारत
भारतीय का सपना निराली
एकता की अंदरूनी शक्ति
अदब अगाध अनुयायी
तृण – तप्त – तिमिर – सा
दर्प – दीप्त देवाङ्गना दास्तां जीवन
मनीषी मयूरध्वज मेधाशक्ति महिमा
कनक कवि की अपनी शोहरत
सूरमा स्वावलम्बी का ज्ञान
स्वतन्त्रता की बजी रणभेरी
अहिंसा ही परमो धर्मः का नारा
शहीदों की आत्महुती अविनाशी
जहाँ उनकी चरितार्थं काया
और उनकी शौर्य पद वन्दन
स्वतन्त्रता का अम्बर छाया था
विहङ्गम जैसी स्वतन्त्र उड़नतश्तरी
हयात का अतुल समादर परितोष
संविधान की गर्वीला गौरव
अशोक चक्र अपना पथ प्रदर्शक
ज्योतिर्मय जीर्णोद्धार तरुवर
अनवरत अटल था विकास का सपना
विरासत सम्पदा की अपनी प्रभा थी
विविध धर्म – संस्कृति – भाषा का समागम
स्वः कीर्तिमान अपना देश भारत
9. विपत्ति का तान्ता
जलसा ही जीवन विपत्ति का तान्ता
अंकाई अंगारा – सा
अंग सौष्ठव का आकर्षण
अब तव दोषारोपण
तासु अपजस बाता – सा
बाबे – गुनाह हई सजायाफ्ता
आलमे – हुस्नो – इश्क तवाज़ुन ही
रिन्द व अंजुमने – मय की फ़ितरत
आबो – ताब – अश्आर
दुश्चरित्र – दुष्चक्र – दुर्मुख – सठ – फनि
मनुज काऊ तजहु दियों
तजि अंक शीर्ण का क्षत- विक्षत
क्षुब्ध व अशनि – पात विप्लव प्लावित
मनु हत व शस्य – सा
अस मम् विदेह निठुर भग्नावशेष कियों
10. ख़ामोशी
गोधूलि बेला थी
आसपास चहल – पहल सा था
कहीं लोगों की भीड़
कहीं तो गाड़ियों की गड़गड़ाहट
वही घड़ी जब मैं
आदर्श सखा का स्मरण आया
मिथ्या ही वार्तालाप के बाद
सखा की खामोशी उपेक्षा – सा
मैं सुध – बुध खो बैठा
उसके ठांव में शान्त – सा माहौल
उसके तह में बरगद पेड़ो की
प्रतिकृति प्रणयन – सा था
वहीं पक्षियों की चहचहाहट
खुशनुमा माहौल से भावविभोर भीं
कहीं दूर पतङ्ग से ही रमणीय
जैसा निनाद था
कुछेक मील आपगा का कर लेती
नीर मनोहर – सा तिरोहित था
11. संस्कृतियों का सार
संस्कृति किसी देश की आन है
शान और अभिमान है
मनुष्य है तो सभ्यता है
ज़िन्दगी का भाग ही संस्कृति है
सभ्यता ही है जीवन पद्धति
सभ्यता और संस्कृति है मानव के धन
यहीं है मानसिक और भौतिक सन्तुलन
संस्कृति से ही मिलती है विकासन्नोमुख
संस्कृति ही है हमारा संस्कार
यहीं है मनुष्य की विकास का आधार
आध्यात्मिक का ज्ञान कराता
सभी जनों को मार्ग प्रशस्त करता
यहीं विकास का ऐतिहासिक प्रक्रिया
जहाँ मिलती बुद्धि और अंतरात्मा का विकास
कलाओं का विकास है संस्कृति
मानव सभ्यता का प्रादुर्भाव है संस्कृति
सांस्कृतिक विरासत है हमारी पहचान
यहीं है धरोहिक का प्रत्याभूत
धार्मिक विश्वास और प्रतीकात्मक
अभिव्यक्ति ही है संस्कृतियों का मौलिक तत्व
आधिभौतिक और भौतिक संस्कृतियों
जहाँ सामाजिक जीवन प्रभाव के उद्यमीस्थल है
यह हमारी अंतस्थ प्रकृति की अभिव्यक्ति है
जहाँ है ऐतिहासिक और ज्ञानों का समावेश
हमारी भारत की संस्कृति है सर्वोपरि
जहाँ अनेकता में एकता का सङ्गम है
वही होती है नन्दिनी की पूजा
जहाँ सम्प्रदायिक ईश्वर का समागम है
12. होली आई
होली आई होली आई
ढ़ेर सारी खुशियाँ लायीं
रङ्गों का त्योहार है
बच्चों का हुड़दङ्ग है
कहीं पिचकारी की रङ्ग
कहीं कीचड़ का दङ्ग
जहाँ भी अबीर – गुलाल के सङ्ग
कहीं ढोल बाजा तो
कहीं अंगना की गीत – गाना
भाईचारा और मित्रता का भाव
फाल्गुन की होली
वसन्त की होली
जहाँ खेतों में सरसों
इठलाती हुई गेहूं की बालियाँ
आम्र मञ्जरी के सुगन्ध
ढोलक – झाञ्झ – मञ्जीरों के सङ्ग
कभी राधाकृष्णन के सङ्ग
कभी ज़हांगीर नूरजहां के रङ्ग
फाग और धमार का गाना
कहीं वसन्तोत्सव
कहीं होलिकोत्सव
कहीं नृत्याङ्गना की नृत्य
तो कहीं कलाकृतियों में
यही होली है भाई होली है
13. हमारी धरती हरियाली हो
हमारी धरती हरियाली होगी ,
जहाँ भौगोलिक विविधता हों ।
पर्वतीय – मैदान – तटीय सङ्गम ,
हिमकर से हिम निर्झर हों ।
वसन है जहाँ अरण्य का ,
धेनु का जहाँ गौरस हों ।
मिलती है वही हरीतिमा ,
हलधर का जहाँ हरिया हों ।
आबोहवा का समागम ,
जहाँ सरिता की बहती धारा हों ।
जगत का आधार है वहाँ ,
जहाँ परि का आवरण हों ।
मनुज का अस्तित्व है वहाँ ,
जहाँ मानव की मानवीयता हो ।
चरण स्पर्श करती साहिल ,
जहाँ पारावार का घाट हो ।
तरुवर की छाया है वहाँ ,
जहाँ पेड़ो का आबण्डर हो ।
पृथ्वी का नभ है वहाँ ,
जहाँ नग का गगनभेदी हो ।
14. चान्दनी रात
गर्दूं आभा से अलङ्कृत
चान्दनी रात कितनी सुन्दर !
काले – काले अंधियारो सङ्ग
दो पक्षों के संयोजन से
मास से वर्ष भी बीत जाना
विश्वरूपी आद्योपान्त प्रतिनिधि
शशि – सितारों के सङ्ग
सर्वव्यापी प्रहरी है ।
कभी ठण्डी – ठण्डी बयारो के झोंके
तो कभी बारिश की बूँदे
कभी गर्मियों से तरबतर
तन – मन को शीतल कर देती
यहीं कलाविद् व्योम का
जो है कुदरत की करिश्मा
15. चाहता क्या है कोरोना ?
कोरोना आया…..
कहाँ से आया ?
बोलो…..
कौन लाया ?
साथ में सङ्क्रमण लाया
शताब्दी बाद फिर महामारी आया
क्यों होता है शताब्दी बाद
इंसानी सभ्यता पर हमला
इंसान क्यों है बेबस ?
प्लेग – हैजा – स्पेनिश फ्लू – कोरोना
करोड़ों का जद से मृत्यु का सफर
यह महामारी नहीं तबाही है।
यह इत्तेफाक है या नहीं
यह किसी भगवान का श्राप
या फिर प्रकृति का
क्या चाहता है ?
मनुष्य का पाप धोना
या फिर मनुष्य सभ्यता मिटाना
आखिर चाहता क्या है कोरोना
16. फूल के दो क्यारी
फूल के मनोहर तस्वीर
कितनी सुन्दर कितनी सुरभि !
सबसे न्यारी सबसे प्यारी !
कहीं लाल तो कहीं बैङ्गनी
यही है प्रकृति का प्रेमी
कुदरत का इन्द्रियग्राह्यी
पेड़ – पौधों का शान हैं
प्रेम और सौन्दर्य का प्रतीक
वीरों की गाती गाथा
जहाँ व्यष्टी का है शहादत
हिमकत व कवि का इल्म
सम्प्रदायों का भी स्तत्व हैं
हैं वित्तीय विपणन में महत
संस्कृतियों के यही धरोहर है
मिलिन्दी की यही दिलकशी
आदितेय का है महबूब
कीट व जीव का है समागम
है व्याधि का उपचार
जहाँ पुष्पण की प्रक्रिया है
यही फूल की हैं दो क्यारी
17. जल है
जीवन की शक्ति है जल
जल के बिना संसार नहीं
जहाँ जीव की है निर्भरता
और पेड़ों पौधों का भी
संसार का अस्तित्व ही
जल है , जल है , जल है ।
दुनिया का आरम्भ यहीं है
जहाँ हुई जीवो की उत्पत्ति
आदिमानव से मानव बना
जल से जलवायु बना
पृथ्वी का दो तिहाई भाग
जल है , जल है , जल है ।
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के
युग्मों से हुआ जल का निर्माण
वाष्पीकरण और सङ्घनन से
जल से जलघर बना
नादियाँ व सागरों के सङ्गम ही
जल है , जल है , जल है ।
ठोस , बर्फ और गैसीय अवस्था
ही जल का संयोजक है
प्रकाश संश्लेषण और श्वसन
ही जीवन का मौलिक आधार है
रासायनिक और भौतिक गुण ही
जल है , जल है , जल है ।
18. राम आयो हमारे अवध में
राम आयो हमारे अवध में
चारों ओर खुशियाँ लायो
दशरथ के आँखों का तारा
रघु के सूर्यवंशी कुल कहलायो
राम आयो हमारे अवध में
मानव की मर्यादा लायो
शान्ति का दर्शन दिलवायो
गुरु वशिष्ट की शिक्षा से पूर्ण
वहीं विश्वामित्र की युद्ध कौशल
राम आयो हमारे अवध में
मिथिलाञ्चल में सीता के स्वयंवर से
एकल विवाह का सिद्धान्त लायो
अपने पिता के वचन निभाने
सीता और भाई के सङ्ग वन को गये
राम आयो हमारे अवध में
जहाँ भरत के भातृ प्रेम हो
राम और सुग्रीव जैसा मित्र
मानव – वानर के सङ्ग
अधर्म पर धर्म की जीत दिलायो
राम आयो हमारे अवध में
19. पत्रकारिता
आधुनिक सभ्यता का सार है
पत्रकारिता हमारा विकास है
दैनिक सप्ताहिक मासिक वार्षिक
लोकतन्त्र का मुकम्मिल दास्तां यह
समसामयिक ज्ञान का आधार है
बाजारवाद व पत्रकारिता अभिसार में
कार्य कर्तव्य उद्देश्य की आचार संहिता
आत्माभिव्यक्ति व जनहितकारी समावेश
समाज की दिग्दर्शिका है देश का
विकासवाद का निरूपण जहाँ
सामाजिक सरोकार की दहलीज
लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ की परिधी
बुनियादी कालातीत बहुआयामी
सूचनाओं का अधिकार है जहाँ
रहस्योद्घटन सामाजिक सामंजस्य
खोजी पत्रकारिता का है सिद्धान्त
समाजवादी की आधारभूत शिला
सशक्त नारी स्वातन्त्र्य समानता जहाँ
कर्त्तव्यपूर्ण सदृढ़ राष्ट्र का प्रवर्द्धन ही
सामाजिक अपवर्तन उदारीकरण है
20. मेघदूत
चलूँ मैं कहाँ पतवार भी नहीं
परवाह नहीं पन्थ को अवज्ञा ही भुजङ्ग
राही को राह नहीं दिखाता कोई
पलको में पड़ा आँसू भर – भरके
विस्तीर्ण अथ लौट चला शून्य में
शून्य में क्यों नहीं दिखती दिनेश ?
मुरझाईं फूल से जाकर पूछो
क्या मधुकर आती तेरी भव में ?
यह अहि आती नहीं मधु विभावरी
देवारी भास न लौटती क्षितिज से
निर्विकार स्तुती निवृत्त स्वर में
ले राग चल यौवन अलङ्कृत
मिट्टी भी धोता लौकिक लिप्त धरा
फिर क्यों लुप्त अमौघ धार मलिन ?
यह लौह चिङ्गार फौलादी के नहीं
विरत शान्ध्य नहीं पानी के
प्राच्य नही कबसे मैं इन्तकाल नजीर
स्मरण की छाया नहीं क्षणिक हीन
तिनका क्या एक – एक चिरता नभ ?
यह एका करती मेघदूत घनीभूत
क्रन्दन क्यों करती अम्बूद अभ्र में ?
आती क्या पिक मयूर होती उन्माद
टूट पड़ा दीपक खण्डिन ज्वार में
यह हलाचल घूँट क्या विस्तृत प्रथम के ?
21. दिवस क्या लौट गई ?
देखा जब समय की पङ्क्ति को
चल चल चलाचल जैसे….
ऊपर – ऊपर , ऊपर होते बढ़ते कदम
सब बँधे है बिछाता इसमें
तरणि क्या वों बटोरती राह ?
यह गो की देखो सार…
साँझ कब का आता , कबसे
तम कब छाती , कब होती प्रभा
समाँ क्या नहीं मिलता किसी को ?
अश्म का पहरा देता कौन हैं ?
अविरत क्या निशा रहती नभ में ?
फिर असित में ही कुञ्चित क्यों है ?
केतन विजय के ले जाता कौन ?
दिवस क्या लौट गई कुतूहल सर से ?
किञ्चित छू अमरता के कहाँ नव !
अचल परख रख ले तू कल
विशिख कौन्धती क्षिति मर्त्य के वन
कस्तूरी मृग कहाँ खोजती स्वयं में ?
समीर उर में ही क्यों कनक द्युति छिपा ?
यह प्रसून नहीं सृष्टा ज्योति के