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2 May 2023 · 1 min read

“ओस की बूंद”

ओस की बूंद

ना ही था अनुभव, न ही कुछ ज्ञान था,
निर्दयी है समय, ना कुछ भान था।
देखकर धरती को थी इतरा रही,
रूप पर, लावण्य पर अभिमान था।।

ओस की उस बूंद को, अनुमान था,
ज्यों उसी का जगत मेँ, सम्मान था।
सब दिखे उसको, मगर विद्रूप से,
धरा पर उसका न ज्यों, प्रतिमान था।।

पल्लवों की गोद मेँ, इतरा रही,
कुछ हँसी हौले से, कुछ शरमा रही।
रँग कुछ उभरे, जो हल्की धूप से,
कौन है मुझसा, यही बतला रही।।

ऐँठ थी, सर को उठाया गर्व से,
कुछ रही अकड़ी, भी निश्चित दर्प से।
आ गया “आशा” जो झोंका हवा का।
जा मिली मिट्टी मेँ, निकली दम्भ से..!

##———-##———##———##

Language: Hindi
2 Likes · 3 Comments · 180 Views
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