Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
30 Apr 2023 · 6 min read

*एमआरपी (कहानी)*

एमआरपी (कहानी)
—————————————-
“यह बताइए उमेश जी कि आपकी किताब की एमआरपी कितनी रखी जाए ? किताब छप कर तैयार है। बस यही आपसे पूछना रह गया था ।”
“आप ही बता दीजिए कि कितनी रखी जाती है ।”
“हमारे हिसाब से तो चार सौ रुपए ठीक रहेगी ।”
“चार सौ रुपए तो बहुत हो जाएगी।” सुनकर उमेश बाबू उछल पड़े । “कम से कम कितनी रखी जा सकती है ? ”
उधर से प्रकाशक का सधा हुआ तथा दृढ़ता से भरा हुआ उत्तर आया ” दो सौ से कम तो हम कदापि नहीं रख सकते ।”
“तो फिर ठीक है । दो सौ रुपए ही रख दीजिए ।”
“मगर यह तो सोचिए कि दो सौ रुपए रखने पर आपको क्या बचेगा ? ”
“मेरा उद्देश्य पुस्तक से आमदनी करना नहीं है । बस इतना ही चाहता हूँ कि किताब की कीमत कम से कम रखी जाए ताकि जिसको रुचि हो , वह किताब सरलता पूर्वक खरीद सके।”
“आपकी राय हो तो ढाई सौ कर दें ? “- इस बार प्रकाशक का स्वर कुछ बुझा हुआ- सा था ।
“नहीं । दो सौ ही रख दीजिए ।आपको तो मैंने पूरा पैसा छपाई का पहले ही दे दिया है।”
” ठीक है हमें कोई एतराज नहीं है । आप कहेंगे तो दो सौ रुपए ही रख देंगे।”
बात आई- गई हो गई । उमेश बाबू की पुस्तक छपकर आ गई। प्रकाशक ने वास्तव में पुस्तक बहुत अच्छी छापी थी । शहर का ही प्रकाशक था। सो एक दिन उमेश बाबू का मन किया तो प्रकाशक का धन्यवाद देने उसके दफ्तर चले गए ।
“कहिए उमेश बाबू ! किताब कैसी लगी ?”- प्रकाशक ने उमेश बाबू का स्वागत करते हुए कहा ।
“किताब बहुत शानदार है । आपने बहुत अच्छी छापी है। कितनी प्रतियाँ बिक गई ?”
” उसकी आप चिंता मत करिए । जितनी प्रतियाँ बिकेंगी, उसकी रॉयल्टी आपके पास पहुँच जाएगी । हमारी व्यवस्था के अनुसार आपको जानकारी मिलती रहेगी ।”
“फिर भी कितनी पुस्तकें बिकी होंगी?” उमेश बाबू ने जब ज्यादा जोर दिया तो प्रकाशक ने थोड़ा मुँह बिगाड़ा और रूखे अंदाज में कहा ” बात यह है उमेश बाबू ! कि हमने तो आपसे मना किया था कि दो सौ रुपए कीमत मत रखिए । हमारे हिसाब से चार सौ रुपए आप रखते , तो अब तक हजार -पाँच सौ प्रतियाँ तो हम कहीं न कहीं लगवा चुके होते।”
” क्या मतलब ! मेरी समझ में नहीं आया?”- उमेश बाबू ने प्रकाशक के सामने बड़े ही भोलेपन से प्रश्न किया ।
“देखिए , सारा खेल एमआरपी का होता है । एमआरपी अर्थात मैक्सिमम रिटेल प्राइस । इसी से किताब आगे बढ़ती है। कुछ सरकारी खरीद होती है । कुछ गैर- सरकारी संस्थाएँ होती हैं, जिनके पास अपने खरीदने के लिए फंड होते हैं । सारा काम सेटिंग का है।”
उमेश बाबू 28 साल के नवयुवक हैं और उनकी पहली किताब छप कर बाजार में आई है। अब उनकी दिलचस्पी किताब से ज्यादा किताब की एमआरपी में होने लगी थी । उन्होंने विषय को कुरेदने की दृष्टि से प्रश्न किया “आपने तो हमें विस्तार से कुछ बताया ही नहीं अन्यथा हम अपनी किताब का अधिकतम खुदरा मूल्य चार सौ रुपए ही रख देते । हमें उसमें कौन सा फर्क पड़ जाता !”
“यही तो मैं आपको समझाना चाहता था। लेकिन या तो मेरे समझाने में कुछ कमी रह गई या आप नहीं समझ पाए । दरअसल आपको प्रकाशन का अनुभव नहीं है उमेश बाबू ! हम अठारह साल से इसी बिजनेस में हैं। जिस जगह जाते हैं, कम से कम पच्चीस प्रतिशत कमीशन देते हैं। कई स्थानों पर तो पचास प्रतिशत तक का कमीशन देना पड़ता है। जहाँ जैसा सौदा पट जाए , हम किताब टेक देते हैं।”
“टेकना माने ?”- यह उमेश बाबू का प्रश्न था । तो प्रकाशक ने समझाया ” यह धंधे की शब्दावली है । मतलब बेच देते हैं। किताबों की बिक्री इतनी सहज नहीं होती । ”
“लेकिन अगर दो सौ रुपए की किताब आप सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं में बेचने जाएंगे तो क्या वह दो सौ रुपए में किताब नहीं खरीदेंगे ?”
“खरीद लेंगे ।जरूर खरीदेंगे ।लेकिन कितने लोग खरीदेंगे ? सौ में एक या दो। बिजनेस ऐसे नहीं चलता । धंधे का काम धंधे के उसूलों से चलता है । भाई साहब ! जब तक सामने वाले को कोई प्रलोभन न हो , वह किताब पर हाथ नहीं रखता । बिना कमीशन कौन खरीदेगा ? और कमीशन भी जब तक तगड़ा नहीं होगा, तब तक लोभ नहीं जागेगा । अगर चार सौ की किताब की हमने दस प्रतियाँ भी किसी संस्था में लगा दीं, तो चार हजार रुपए का चेक हमारे पास आ जाएगा और हमने उसे उसमें से हजार या पन्द्रह सौ रुपए दे दिए तब भी हमें दो सौ की कीमत से ज्यादा का मूल्य प्राप्त हो जाएगा । फिर हम चार सौ रुपए के हिसाब से आपको भी तो रॉयल्टी देंगे ।”
“यह तो मैंने सोचा ही नहीं ! ” -कहते हुए उमेश बाबू अब सोच में पड़ने लगे थे ।
” यह खेल केवल हमारे बिजनेस में ही नहीं हो रहा। सब जगह यही खेल चलता है। ग्राहक भी मोलभाव करता है ।आप किसी वस्तु को बाजार में खरीदने जाएँ। उस पर मूल्य कितना भी पड़ा हुआ हो लेकिन ग्राहक यही चाहता है कि दस या पाँच प्रतिशत की छूट मिल जाए। भारतीय उपभोक्ता की मनोवृत्ति ही ऐसी बन गई है कि जब तक उसे एमआरपी में कोई छूट न मिले ,उसका खाना हजम नहीं होता ।” सुनकर उमेश बाबू इतनी गंभीर चर्चा के बाद भी हँस पड़े । कहने लगे “यह बात तो आपकी सही है।”
” किस जगह यह धंधा नहीं चल रहा? आतिशबाजी आप खरीदने जाते हैं ,उस पर अगर चार सौ रुपये की एमआरपी है तो बड़ी आसानी से सौ रुपये में मिल जाती है । स्कूल कॉलेजों की किताबें कमीशन पर बेची जाती हैं। एमआरपी का आधा पैसा बुकसेलर को मिलता है और आधा पैसा कमीशनबाजी में चला जाता है । सबको पता है । यह एमआरपी का एक सामान्य नियम बन गया है । जब भी मार्केट में कोई वस्तु आती है ,तो उसकी एक एमआरपी रखी जाती है क्योंकि सरकारी नियम है कि हर वस्तु का अधिकतम खुदरा मूल्य रखना पड़ता है । लेकिन बाजार में कमीशन इतने ज्यादा हैं कि ग्राहक तक पहुँचते-पहुँचते चीज आधी- चौथाई दामों पर अक्सर उपलब्ध होती है। बस यूँ समझ लीजिए कि सारा पैसा बीच के बिचौलियों में बँट जाता है और निर्माता या प्रकाशक जो भी आपका है , उसके पास तो केवल वास्तविक मूल्य पर थोड़ा सा मुनाफा ही मिल पाता है।”
” तो इसके मायने यह रहे कि प्रकाशक एमआरपी ज्यादा रखने के बाद भी कोई बहुत लाभ की स्थिति में नहीं रहता ?”
” यही तो मैं आपसे कहना चाहता हूँ,उमेश बाबू ! हमारे पास कुछ नहीं बचता। एमआरपी जो हम ज्यादा रखते हैं, उसका सारा पैसा बिचौलियों में बँट जाता है । अगर हम एमआरपी ज्यादा न रखें तो फिर बिचौलियों को कमीशन कैसे देंगे ? मजबूरी है । रखना पड़ती है । एमआरपी दुगना रखना हमारे लिए मजबूरी है । क्या सरकार और उसके अफसर इस बात को नहीं जानते ? भाई साहब ! सब जानते हैं और दूसरी तरह से पूछें तो सब ने आँखें मूँद रखी हैं । सब चल रहा है । एमआरपी दिखावे की बात रह गई है । बस यह समझिए कि ग्राहक की जेब कट रही है । हमारे हाथ में भी कुछ नहीं आ रहा और न हम आपको कुछ दे पा रहे हैं ।आप अपना ही उदाहरण ले लीजिए। आपने किताब की कीमत सिर्फ दो सौ रुपये रखवाकर अपने और हमारे दोनों के पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली । न हम बिचौलियों को कमीशन दे पा रहे हैं और न आपकी किताब को बेच पा रहे हैं । खैर छोड़िए भाई साहब ! जो हुआ सो हुआ । अब आगे कोई किताब छपवाएँ, तो एमआरपी पर ध्यान जरूर दीजिए । अधिकतम खुदरा मूल्य अर्थात मैक्सिमम रिटेल प्राइस बढ़ा – चढ़ा कर ही रखना चाहिए ।”-प्रकाशक ने बात को समाप्त करते हुए कहा।
————————————————
लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 545 1

232 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Ravi Prakash
View all
You may also like:
समरसता की दृष्टि रखिए
समरसता की दृष्टि रखिए
Dinesh Kumar Gangwar
वादा
वादा
Bodhisatva kastooriya
ज़िंदगी की उलझनों के सारे हल तलाश लेता।
ज़िंदगी की उलझनों के सारे हल तलाश लेता।
Dr fauzia Naseem shad
मेरी सच्चाई को बकवास समझती है
मेरी सच्चाई को बकवास समझती है
Keshav kishor Kumar
*स्वतंत्रता सेनानी श्री शंभू नाथ साइकिल वाले (मृत्यु 21 अक्ट
*स्वतंत्रता सेनानी श्री शंभू नाथ साइकिल वाले (मृत्यु 21 अक्ट
Ravi Prakash
सांसें थम सी गई है, जब से तु म हो ।
सांसें थम सी गई है, जब से तु म हो ।
Chaurasia Kundan
मौसम आया फाग का,
मौसम आया फाग का,
sushil sarna
अनोखा दौर
अनोखा दौर
विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
अनेक रंग जिंदगी के
अनेक रंग जिंदगी के
Surinder blackpen
राजर्षि अरुण की नई प्रकाशित पुस्तक
राजर्षि अरुण की नई प्रकाशित पुस्तक "धूप के उजाले में" पर एक नजर
Paras Nath Jha
🙏 *गुरु चरणों की धूल*🙏
🙏 *गुरु चरणों की धूल*🙏
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
"घोषणा"
Dr. Kishan tandon kranti
आजकल सबसे जल्दी कोई चीज टूटती है!
आजकल सबसे जल्दी कोई चीज टूटती है!
उमेश बैरवा
बहना तू सबला बन 🙏🙏
बहना तू सबला बन 🙏🙏
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
3061.*पूर्णिका*
3061.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
गीत - इस विरह की वेदना का
गीत - इस विरह की वेदना का
Sukeshini Budhawne
😢हे मां माता जी😢
😢हे मां माता जी😢
*प्रणय*
The Sound of Birds and Nothing Else
The Sound of Birds and Nothing Else
R. H. SRIDEVI
Dear  Black cat 🐱
Dear Black cat 🐱
Otteri Selvakumar
असली – नकली
असली – नकली
Dhirendra Singh
लोग कहते रहे
लोग कहते रहे
VINOD CHAUHAN
रिश्तों में झुकना हमे मुनासिब लगा
रिश्तों में झुकना हमे मुनासिब लगा
Dimpal Khari
अभी गनीमत है
अभी गनीमत है
शेखर सिंह
ശവദാഹം
ശവദാഹം
Heera S
🌷🌷  *
🌷🌷 *"स्कंदमाता"*🌷🌷
Shashi kala vyas
डिप्रेशन में आकर अपने जीवन में हार मानने वाले को एक बार इस प
डिप्रेशन में आकर अपने जीवन में हार मानने वाले को एक बार इस प
पूर्वार्थ
मौज के दोराहे छोड़ गए,
मौज के दोराहे छोड़ गए,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
दशमेश के ग्यारह वचन
दशमेश के ग्यारह वचन
Satish Srijan
अपना साया ही गर दुश्मन बना जब यहां,
अपना साया ही गर दुश्मन बना जब यहां,
ओनिका सेतिया 'अनु '
फुर्सत के सिवा कुछ नहीं था नौकरी में उस। रुसवाईयां चारों तरफ
फुर्सत के सिवा कुछ नहीं था नौकरी में उस। रुसवाईयां चारों तरफ
Sanjay ' शून्य'
Loading...