एक कवि और गरीब का दर्द एक समान
मन के दर्द से कलम उठता है
मन के दर्द से कलम उठता है
एक कवि वही लिखता है
जो सामने दिखता है।
पाठक – श्रोतागण कवि के भावों को समझ नहीं पाते हैं
पाठक – श्रोतागण सिर्फ वाहवाही कर ताली ही बजातें हैं।
वहीं पर कवि मन से रोता है
वह सोचता है चलो हमारी रचना कुछ काम तो आया
इस मशीन बन चुके इन्सान को हंसाने का काम तो आया।
विलासिता या मायूसी के जिंदगी में मानव का खून जम जाता है
कम से कम कवि की रचना से उनके नसों में खून का संचार तो हो जाता है।
उसी तरह
उस गरीब इन्सान की गरीबी उसे ही मालूम है कि
गरीबी क्या होता है?
कार से उतर कर एक अमीर उसके पास आता है
उस गरीब का फोटों खीच
उस फोटो को म्युजियम में लगाता है
गरीब का फोटो यह देख मुस्कुराता है
और कहता है
हे अमीरों
तुमने मेरा फोटों खीच कर म्यूज़ियम में लगा दिया है
तुमने तो मुझे बहुत महान बना दिया है।
मैं तो गरीबी में जी रहा हूँ
मैं तो फुटपाथ पर सो रहा हूँ
कभी रोटी मिल जाती है
कभी भूखे पेट—–
हे मेरे अमीर इन्सान
तू तो मुझसे भी गरीब है
यहाँ मैं नहीं मेरा फोटो तेरे करीब है।
तू आज मुझ गरीब का फोटो करोड़ो में बेच रहा है
मैं तो वही गरीब हूँ जस का तस
तू मेरा फोटो बेच कर और अमीर हो रहा है।
मुझ गरीब की यह फोटो तेरे घर के दिवारों पर लगे हुए हैं
तेरे मेहमान तुझे बाद में
पहले मुझे देख रहे हैं।
मुझे वो देखकर चार बातें करतें हैं
कुछ समय के लिए
वे अपने को भूल जाते हैं
मुझ गरीब की फोटो देख वे शर्मिंदा हो जातें हैं।
शर्म से
हाँ भाई शर्म से उनके शीश झुक जाते हैं
मैं यह देख खुश हो जाता हूँ
मैं दुनिया वालों से कहता हूँ
मुझ गरीब को दो रोटी इसने खिलाया नहीं।
आज इसने मेरा फोटो
आज इसने मेरा फोटो
इसने दिवारों पर बड़े शान से लगाया है
दिवारो पर शान से लगाया है।
मैं तो उसी बस्ती में अभी भी रहता हूँ
वही भुखमरी जिंदगी से जीवन बसर करता हूँ
लेकिन
यह मेरा फोटो अमीर के दिवारों पर लग कर
यहाँ
सम्मान पा रहा है
सम्मान पा रहा है
उस कवि और मेरी कहानी एक सा है
वह कलम पकड़ कर दर्द लिखता है
मैं गरीब रह कर दर्द सहता हूँ।
राकेश कुमार राठौर
चाम्पा (छत्तीसगढ़)