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19 Aug 2021 · 1 min read

उलझी उलझी तेरी लटें

*उलझी उलझी तेरी लटें*
********************
*222 222 12 (ग़ज़ल)*
********************

उलझी उलझी तेरी लटें,
मुझको भी उलझाती लटें।

छायी बदली हो आसमां,
काले बादल जैसी लटें।

सुलझा भी उलझे है यहाँ,
आपस में जो लिपटी लटें।

आँखे शरमाई ना खुली,
माथे पर हैं लटकी लटें।

ज़ुल्फ़ें मगरूरी हैं बड़ी,
तेरे मुख से ना हटती लटें।

मनसीरत भी बंधा हुआ,
ख्यालों में हैं बसती लटें।
********************
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)

150 Views

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