आनंद प्रवाह : यदि तुम अपनी चेतना :: जितेन्द्र कमल आनंद ( ९४)
आनंद — प्रवाह ( छंद मुक्त )
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प्रिय आत्मन !
यदि तुम अपनी समस्त चेतना को
कर सकते हो जागृत , एकत्रित , संचित
और दे सकते हो तुम भी शक्ति अथाह
वहॉ सकते हो आनंद — प्रवाह,
प्रत्येक मनो मंच पर —
कहलवा सकते हो — वाह ! वाह !!
इस आनंद सरित् के श्वेत फेनिल तट से ही
अपने पंखों में प्राणवायु भरकर ,
भर सकता है उड़ाने हंस सीमातीत होकर ,
देहातीत होकर , परम सत्ता की ओर —
अनुभव कर इस अन्तर्यात्रा का
इस योग यात्रा का दे सकेगा अपने प्रेम गीतों को —
आनंद- उद्गार , और कर सकेगा / समय पर सहज ही
सादर सप्रेम सानंद
वह भव सागर भी पार , अन्तत: !!
—— जितेंत्रकमलआनंद