अपनी अपनी मंजिलें हैं

अपनीं अपनी मंजिलें हैं, अपना सफर है
ग़म नहीं गर साथ न कोई हमसफर है
अजीयते अपनी हैं, दर्द भी है अपने
सोचे क्यू अब तेरा हमसाया किधर है
रास्ते में क्यों करूँ मैं, मंजिलों की बात
क्यू पता चले कि खोया मेरा घर है
ग़म जो मिल रहे हैं तो ,ग़म नही मुझे
इसी ग़म में तो सारा ग़म- ऐ दहर है
रूठने लगी हैं सांसें,नब्ज भी थमी है
मिला मुझे न कोई ,पर चारागर है
मंजिल पर हम कभी पहुंचे तो कैसे
जीवन का तो ये , आखिरी पहर है
दुआ करो कि दुआ लग जाये किसी की
बस दुआओं का हरा रहता शजर हु
सुरिंदर कौर