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3 Oct 2016 · 1 min read

समर्पण

मृदु मंद मुस्काँ अधरों की
रक्तवर्णी चेहरे को उष्णता देती
कोरों के झरोखों से झाँक
मौन आत्मसमर्पण कर कहती

दूर तुम इतने हो मुझसे प्रिय
जितना दूर यह गगन जमीं से
पर गगन को तो देख लेती हूँ
क्यों न देते तुम अर्पण प्रिय

बदली बन मैं घनघोर मेघ की
अंग – अंग तेरा भिगों दूँ प्रिय
बिजुली बन बाबले बादल की
समर्पण को आतुर रहूँ मैं प्रिय

मिलन तेरा मेरा इक बहाना है
आगे की पीढ़ी को सीखाना है
गर चूक करो संस्तृति न बढ़ेगी
आत्मसमर्पण की कथा न बढ़ेगी

आओ प्रिय उत्सर्ग तुम अपना दो
लेने देने से ही ये जीवन चलता है
आत्मतर्पण की बेदी पर निखरोगे
मुझमें अपने को हर पल तुम ढूढ़ोगे

डॉ मधु त्रिवेदी

Language: Hindi
72 Likes · 454 Views
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