‘ विरोधरस ‘—22. || विरोध के प्रकार || +रमेशराज
1-स्व-विरोध-
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कभी-कभी आदमी भूलवश या अन्जाने में ऐसी गलतियां कर बैठता है जिनके कारण वह अपने को ही धिक्कारने लगता है-
उसको ही सुकरात बताया, ये क्या मैंने कर डाला?
जिसने सबको जहर पिलाया, ये क्या मैंने कर डाला?
छन्दों, बिम्बों, उपमानों का जो कविता का हत्यारा,
कविता का घर उसे दिखाया, ये क्या मैंने कर डाला?
-रमेशराज [सूर्य का उजाला, तेवरी विशेषांक ]
2-पर-विरोध-
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स्व से ‘पर’ का रिश्ता निस्संदेह आत्मीयता, आस्था और श्रद्धा पर टिका होता है। किन्तु जब रिश्तों के बीच छल पनपता है, स्वार्थ घनीभूत होते हैं तो समान आत्म वाले दो व्यक्तित्व एक दूसरे के प्रति विरोधी स्वरों में बात करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में विरोध का स्वर निम्न प्रकार मुखर होने लगता है-
जीत लेंगे आप छल से सत्य को,
आपका अनुमान था, वो दिन गये।
आपकी जादूगरी को देखकर,
‘त्रस्त’ भी हैरान था, वो दिन गये।
-सुरेश त्रस्त, ‘सम्यक’ तेवरी विशेषांक-92, पृ.12
3-व्यक्तिविशेष-विरोध-
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जब कोई व्यक्ति विशेष अनाचार-अनीति-भ्रष्टाचार का प्रतीक बन जाता है तो उस व्यक्ति के प्रति व्यक्त किया गया विरोध समूची हैवानियत के धिक्कार की गूंज बन जाता है-
खींचता हर शख्स की अब खाल दातादीन
कर रहा हर जिन्दगी मुहाल दातादीन।
-योगेन्द्र शर्मा, कबीर जिन्दा है, पृ. 70
4-चारित्रिक विरोध-
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आप राणा बनें, न बनें,
खुद को जयचंद ना कीजिए।
-जितेंन्द्र जौहर, तेवरीपक्ष, अ.-सि.-08, पृ.1
विश्वामित्र कहाता है पर,
खुद का मित्र न हो पाया है।
-गिरिमोहन गुरु, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.23
5-अहंकार-विरोध-
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जमीं से ही जुड़े रहियो ये इन्सानी तकाजा है,
न बेजा अपने सर पर तू गुमां का आसमां रखियो।
-रसूल अहमद सागर, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.1
6-विडंबना-विरोध-
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विद्वानों के ग्रन्थ पर आमुख लिखें गंवार,
हंस बजायें तालियां कौए पहनें हार।
-अशोक अंजुम, ललित लालिमा, जन.मार्च-08,पृ.23
7-साम्प्रदायिकता-विरोध-
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काम ईश्वर का या अल्ला का नहीं
जिस तरह से ले रहा है जान तू।
-राजकुमार मिश्र, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.20
8-छद्मता-विरोध-
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चोर-डकैतों ने यहां बदला अपना वेश,
पहले रूप सियाह था, आज धवल परिवेश।
-टीकमचन्दर ढोडरिया, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.23
9-आतंकवाद का विरोध-
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आह्वान हो युग-पुरुषों का, वीर धनुर्धर का,
आतंकवाद या उग्रवाद के सपने हो जायें अतीत।
-हितेशकुमार शर्मा, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.23
10-असह्य परिस्थिति-विरोध-
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सोच-सोच के हारा, घबराता जिगर है,
‘भारती’ क्या कहूं, शाम-सी सहर है।
-सुभाष नागर भारती, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.22
11-परम्परा-विरोध-
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नारी भी कैसे सशक्त हो, दासी बनकर साथ रहे,
नर से अलग न स्वप्न रह सकें, जाये किसके धाम कहां।
-डॉ. परमलाल गुप्त, तेवरीपक्ष अ.-सि.-08,पृ.22
12-छल-विरोध-
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सबेरे को मजे से शाम लिख तू,
तेरे अनुसार अक्षर हो गये हैं।
-केशव शरण, तेवरीपक्ष जन.-मार्च-08, पृ.9
13-विघटन-विरोध-
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अब तो आपस में घात रहने दो,
खुशनुमा कायनात रहने दो।
-डॉ. बी.पी. दुबे, तेवरीपक्ष जन-मार्च-08, पृ.11
14-समाधानात्मक-विरोध-
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हकीकत के अल्फाज गढ़ने पड़ेंगे,
हमें आईने अब बदलने पड़ेंगे,
बहुत लुट चुकी है शराफत की दुनिया,
हमें अपने तेवर बदलने पड़ेंगे।
-आजाद कानपुरी, तेवरीपक्ष, जन-मार्च-08 पृ.11
15-व्यवस्था-विरोध-
की थी राम-राज्य की आशा,
हाथ लगी बस घोर निराशा।
यह बेजारी कब जायेगी?
मन में रही यही अभिलाषा।
-दर्शन बेजार, तेवरीपक्ष, वर्ष-6,अंक-3, पृ.19
—————- समाप्त ———————————-
+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630