रेत
रेत
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जैसे भभरती है,
मुट्ठियों से भरी रेत,
वैसे ही छूट रही है,
बँधे हुए ये संबंध।
टूटते जा रहे हैं,
बँधनें प्रेम की,
और बना रहे हैं,
लहलहाते को रेगिस्तान।
फिक्र नहीं है,
ये रेतें,
काम आएगीं,
किसी के बीच दिवारें
जोड़ने की।
ये दिवारें,
तोडेंगी जरूर,
एक दूसरे की नजदीकियाँ
और बन देेगी रेगिस्तान।
तब उड़ेेंगे,
सिर्फ धूल,
एक-एक बूँदें भी,
अनमोल होगा,
तब समझ आयेगा,
टूटने से क्या होता है?
———-मनहरण ।