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12 Sep 2017 · 1 min read

मानवता

पंक्षी कलरव करते थे निशदिन कैसे बागों में।
रिश्ते भी पिरोये जाते थे तब कच्चे धागों में।।
समय कहीं वो खो गया मानवता कहीं विलुप्त हुई।
आज तो जैसे केवल हिंसा बसती है अनुरागो में।।

मानव ही मानव को मारे रक्षक ही अब भक्षक है।
आज का मानव जैसे कोई दुध पिलाया तक्षक है।।
नाम धर्म का लेता है और रुधिर धरा पर बहता है।
इंसानियत विलुप्त हो रहा कौन अब इसका रक्षक है।।
“©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”

Language: Hindi
495 Views
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