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23 Sep 2022 · 11 min read

#जगन्नाथपुरी_यात्रा

#जगन्नाथपुरी_यात्रा
जय जगन्नाथ
( जगन्नाथ मंदिर पुरी ,कोणार्क का सूर्य मंदिर तथा भुवनेश्वर यात्रा 13 ,14 ,15 दिसंबर 2021 )
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चाँदी के चमचमाते हुए सुंदर और विशालकाय दरवाजों से होकर जब मैं जगन्नाथ मंदिर ,पुरी के गर्भगृह के ठीक सामने पहुँचा ,तो मन में यही अभिलाषा थी कि काश ! समय ठहर जाए और मैं अपलक इस दृश्य को देखता रहूँ। भक्तों की भारी भीड़ के प्रवाह में एक तिनके की तरह बहता हुआ मैं इस अभीष्ट बिंदु तक आया था । भगवान जगन्नाथ ,उनकी बहन सुभद्रा तथा भाई बलराम की सुंदर चटकीले रंगों से सुसज्जित मूर्तियों को मैं अपने नेत्रों में भर लेना चाहता था । जिस समय मैं पहुंचा ,शाम चार बजने में कुछ समय बाकी था। मूर्तियों के आगे एक या दो इंच चौड़ी पीले कपड़े की पट्टी ओट बन कर उपस्थित थी। फिर भी यह जो दिख रहा था ,कम अलौकिक सौभाग्य की बात नहीं थी । मनुष्य चाहता तो बहुत कुछ है लेकिन उसे उतना ही मिल पाता है जितना भाग्य में होता है । मंदिर के पुजारीगण हाथ में लकड़ी के नरम चिमटे लिए हुए खड़े थे और भक्तों को पीठ पर आशीष देते हुए आगे बढ़ जाने का संकेत देते थे । इस प्रवाह में न कोई रुक सकता था ,न अपनी मर्जी से बढ़ सकता था । प्रवाह के साथ मैं आया था और प्रवाह के साथ ही बहता चला गया । स्वप्न की तरह भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन स्मृतियों का एक अंग बन गए । चाहने को तो मैं चाहता था कि मैं जिस गैलरी में खड़ा था ,उसके भीतर वाली गैलरी में काश खड़े होने का अवसर मिल जाता तो दर्शन निकट से हो जाते ! उसके बाद यह भी चाहत रहती कि काश ! जिस कक्ष में जगन्नाथ जी विराजमान हैं, उस कक्ष के दरवाजों के भीतर प्रवेश की अनुमति मिल जाती और कुछ मिनट अत्यंत निकट से भगवान के विराट रूप को देखने का अवसर मिल जाता । लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि व्यक्ति पुरी तक पहुंच जाए ,फिर जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश कर सके और फिर गर्भगृह के सामने उपस्थित होकर भगवान के दर्शनों का सौभाग्य उसे प्राप्त हो जाए ,यह भी ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करने का पर्याप्त कारण है ।

जगन्नाथ मंदिर अपने आप में इस दृष्टि से विचित्र और अद्भुत है कि यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भाई-बहन पारिवारिक संपूर्णता के साथ पूजन के लिए विराजमान हैं । परिवार की इस परिभाषा में भाई और बहन की उपस्थिति को जो दिव्यता यहां प्राप्त होती है उसे लौकिक जीवन में प्रतिष्ठित कर देने के लिए ही मानो इतना बड़ा तीर्थधाम स्थापित हुआ हो ! भगवान कृष्ण यहां केवल अपने भाई और बहन के साथ उपस्थित हैं और उनके इस स्वरूप को पूजा जाता है अर्थात इस बात की घोषणा यह तीर्थ-स्थान कर रहा है कि जीवन में भाई बहन का संबंध अटूट होता है तथा इन संबंधों की स्वच्छता को बनाना ही मनुष्य का धार्मिक कर्तव्य है । माता और पिता के साथ-साथ व्यक्ति के जीवन में भाई-बहन का विशेष संबंध होता है । न केवल विवाह से पहले अपितु उपरांत भी यह संबंध किसी न किसी रूप में समाज में प्रतिष्ठित रहे हैं। लेकिन एक मंदिर के रूप में इन संबंधों को जो उच्चता जगन्नाथ जी का मंदिर प्रदान कर रखा है ,वह अपने आप में अनोखा है । यहां पहुंच कर भाई और बहन के साथ पारिवारिकता के गहरे संबंध जीवन में उदित हों, संभवत यही इस मंदिर का उद्देश्य है। सारी सृष्टि भाई और बहन के संबंधों पर टिकी हुई है। यह संबंध जितने प्रगाढ़ और तरल होंगे , उतना ही संसार सुरभित होगा।

सिर पर बाँस के बने हुए बड़े-बड़े टोकरे लेकर पुजारीगण घूम रहे थे । भोग की तैयारियां थीं। हमारे साथ चल रहे पंडा महोदय ने प्रसाद के लिए हमें अन्न क्षेत्र प्रतिष्ठान में ले जाकर इच्छनुसार धनराशि का प्रसाद खरीदने के लिए कहा। ₹550 की रसीद हमने कटवाई और प्रसाद लेकर पंडा महोदय के साथ दर्शनों के लिए चले गए । पंडा महोदय ने बताया कि प्रतिदिन भारी संख्या में यहां भोजन बनता है । भगवान को भोग लगाया जाता है तथा निशुल्क वितरण किया जाता है । मंदिर की पताका प्रतिदिन बदली जाती है । कोई सीढ़ी नहीं है ,फिर भी सरलता से चढ़कर यह कार्य संपन्न होता है ।

मुख्य मंदिर उड़ीसा (ओडिशा) की पुरातन स्थापत्य कला की विशेषता को दर्शाता है । इसी के समानांतर कोणार्क के सूर्य मंदिर तथा भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर भी है । लगभग गोलाकार तथा भारी ऊँचाई लिए हुए यह मंदिर अपनी सांवली-सलोनी क्षवि में अत्यंत सुंदर प्रतीत होता है । इसके आगे सफेद पुताई के दो अन्य मंदिर-भवन भी हैं। यह सब जगन्नाथ जी परिसर के भीतर ही हैं।

जगन्नाथ मंदिर पुरी के व्यस्त भीड़-भाड़ वाले इलाके में स्थित है । नगर की मुख्य सड़क पर जहां लोगों के रहने के मकान ,दुकाने ,बाजार ,कार्यालय आदि स्थित हैं, वहीं से जगन्नाथ मंदिर में जाने के लिए रास्ता शुरू हो जाता है । एक तरफ रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी हुई स्कूटर ,बाइक और कारें चल रही हैं ,दूसरी तरफ मंदिर के भीतर जाने के लिए दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ रही है ।

मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही जूते-चप्पल उतार कर रखने की व्यवस्था है। मोबाइल ले जाना मना है । यह सब सामान रखने के लिए छह-सात काउंटर है,जिन पर लाइने लगी हुई हैं। यहाँ सामान सुरक्षित रहता है। इसी के दूसरी तरफ आधार कार्ड तथा कोरोना वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट की जांच के लिए काउंटर बने हुए हैं । इनमें भी लंबी लाइनें हैं । तत्पश्चात अंदर प्रवेश की अनुमति है । पीने के पानी की टंकियाँ हैं।

गर्भगृह में दर्शनों के उपरांत जब हम बाहर निकले तो सीधे सड़क पर आ गए। सामान्य यातायात चल रहा था । हम नंगे पैर थे और हमें अपने जूते-चप्पल-मोबाइल लेना बाकी था । मन में विचार आया कि कितना सुंदर हो अगर मंदिर से दर्शनों के उपरांत बाहर निकलने के समय भी एक विस्तृत मंदिर परिसर भक्तों को उपलब्ध हो सके, जहां वह कुछ क्षण सुरक्षित रीति से पैदल चल सकें और कहीं विश्राम कर सकें और कुछ देर बैठ कर मंदिर में बिताए गए अपने समय का आभारपूर्वक स्मरण कर पाएँ। जगन्नाथ पुरी के दर्शन हमारी यात्रा का मुख्य पड़ाव अवश्य था लेकिन शुरुआत दिल्ली से भुवनेश्वर की यात्रा से हो हो गई थी ।
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उड़ीसा में सभ्यता और संस्कृति की गहरी जड़ें विद्यमान
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“क्या आप यूपी से आए हैं ? “-हवाई जहाज की हमारी निकट की सीट पर खिड़की के पास बैठी हुई एक भली-सी लड़की ने मुझसे यह प्रश्न किया था ।
भली इसलिए कि उसने हमारे आग्रह पर हम पति-पत्नी को पास की सीटें देकर स्वयं खिड़की के बराबर वाली सीट पर बैठना स्वीकार कर लिया था। भली इसलिए भी कि जब टॉफी का पैकेट हवाई-यात्रा शुरू होते ही मैंने खोलने का प्रयत्न किया और वह दो बार में नहीं खुला ,तब तीसरी बार में उस लड़की ने यह कहते हुए कि “लाइए अंकल ! मैं खोलती हूं “-उसे तत्काल खोलकर मुझे दे दिया। यात्रा में भले लोग मिल जाते हैं ,यह भी ईश्वर की कृपा ही कही जा सकती है । उस लड़की ने स्वयं बताया कि वह पेरिस से एमबीए कर रही है तथा भुवनेश्वर में रहती है।

भुवनेश्वर पहुंचकर शहर लगभग वैसा ही था ,जैसा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ या देश की राजधानी दिल्ली का होता है ।बस इतना जरूर है कि अनेक दुकानों पर उड़िया भाषा मैं बोर्ड लगे थे । स्थान-स्थान पर मुख्यमंत्री महोदय के चित्र सहित बड़े-बड़े बोर्ड केवल उड़िया भाषा में ही थे। अंग्रेजी का प्रभुत्व बाजारों में देश के बाकी स्थानों की तरह ही यहां भी नजर आ रहा था। हिंदी का प्रयोग भी काफी था । हिंदी संपर्क भाषा के रूप में उड़ीसा में खूब चल रही थी । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला ,जो हिंदी न समझ पा रहा हो। बड़ी संख्या में यहां के निवासी हिंदी बोल रहे थे तथा समझ रहे थे ।

साड़ियों की एक दुकान पर जब हम लोग गए तो वहां जो महिलाएं साड़ी खरीद रही थीं, वह स्वयं भी साड़ियां पहने हुए थीं। स्थान-स्थान पर महिलाओं की मुख्य वेशभूषा साड़ी ही नजर आ रही थी । उड़ीसा में ही एक विवाह समारोह में भी हम सम्मिलित हुए । वहां लगभग शत-प्रतिशत महिलाएं साड़ी पहने हुए थीं । वह सोने के वजनदार आभूषण भारी संख्या में धारण किए हुए थीं। यह इस बात का द्योतक है कि उड़ीसा में पारंपरिक विचारों की जड़ें बहुत गहरी हैं।
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भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर
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लिंगराज मंदिर उड़ीसा का धार्मिक चेतना का केंद्र कहा जा सकता है । इस प्राचीन मंदिर के आगे सुंदर परिसर साफ-सफाई के साथ स्थित है। परिसर में प्रवेश करते ही मुख्य मंदिर के साथ-साथ दसियों अन्य पूजागृह भी बने हुए हैं ,जहां पर पुजारी भक्तों से पूजा कराने में तल्लीन रहते हैं ।

लिंगराज मंदिर का मुख्य गर्भगृह कोरोना के कारण काफी दूर से ही दर्शन हेतु उपलब्ध हो पाया । उत्तर भारत के मंदिरों में जिस प्रकार बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं ,यहां का परिदृश्य उससे भिन्न है । पत्थरों में प्राण-प्रतिष्ठा के माध्यम से यहां के मंदिरों को मूल्यवान बनाया गया है। यह वास्तव में पूजा-अर्चना के माध्यम से अद्वितीय अलौकिक लाभ प्रदान प्राप्त करने के तीर्थ क्षेत्र हैं।

लिंगराज मंदिर के द्वार पर दो शेर सुनहरी आभा के साथ विराजमान हैं । प्रवेश द्वार पर मूर्तियों आदि के माध्यम से रंग-बिरंगी चित्रकारी की गई है ,जो बहुत सुंदर प्रतीत होती है । मंदिर के दरवाजे विशालकाय हैं, जिनके बारे में पूछने पर पता चला कि यह अष्ट धातु के बने हुए हैं । समूचा मंदिर पत्थरों से बना हुआ है ,जो दिव्य श्यामल छटा बिखेरता है । दूर से ही सही लेकिन विराजमान सजीव ईश्वरीय तत्व की अलौकिक आभा का कुछ अंश हमें प्राप्त हुआ, यह ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करने का सुंदर कारण है ।
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कोणार्क का सूर्य मंदिर
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कोणार्क का सूर्य मंदिर हमारी यात्रा का एक विशेष पड़ाव रहा । विश्व धरोहर घोषित होने के कारण कोणार्क का सूर्य मंदिर शासकीय संरक्षण में अपनी सज-धज के साथ न केवल बचा हुआ है बल्कि इसके चारों ओर सड़कों तथा मैदानों-पार्को आदि के निर्माण के द्वारा इसकी भव्यता को चार चाँद लगा दिए गए हैं । इतिहास के सैकड़ों वर्ष पुराने कालखंड की धरोहर के रूप में यह सूर्य मंदिर अभी भी सजीव अवस्था में उपस्थित है । जगह-जगह पत्थर टूट गए हैं । काफी कुछ अधूरापन सर्वत्र नजर आता है । कुछ स्थानों पर पर्यटकों को जाने से मना किया जाता है तथा उनका प्रवेश निषेध है । जहां तक पर्यटक जा सकते हैं ,वे जाते हैं और उनकी भीड़ इस प्राचीन स्मारक पर उमड़ी हुई नजर आती है ।

मंदिर की मुख्य विशेषता रथ के वह पहिए हैं ,जो मनुष्य के आकार से कहीं ज्यादा बड़े हैं तथा उन की परिकल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है । मानो सूर्य देवता अपने रथ पर आसीन होकर संसार का भ्रमण करने के लिए निकल पड़े हों। केवल रथ के पहिए ही कोणार्क के सूर्य मंदिर की पहचान नहीं है ,इसकी असली खूबी इसकी दीवारों पर उभरे हुए वह चित्र हैं जो पत्थर पर न जाने कितने अनगिनत कारीगरों ने अनेक वर्षों तक अपनी कला का प्रदर्शन बिखेरते हुए बनाए हैं । यह पत्थरों पर उभरे हुए चित्र सैकड़ों वर्ष बाद भी हवा ,पानी और धूप के थपेड़े खाकर भी अपने हुनर की कहानी कह रहे हैं । इन चित्रों में जीवन का उत्साह और उल्लास फूट पड़ता है । सर्वत्र सुख और आनंद का वातावरण छाया हुआ है। स्त्री और पुरुष आनंद में निमग्न हैं। अभिप्राय यही है कि जीवन सूर्य की तेजस्विता के समान निरंतर अपनी खुशबू विशेषता हुआ आगे बढ़ता चला जाए ।

किसी चित्र में कोई स्त्री कहीं ढोलक बजा रही है । कहीं कोई स्त्री मंजीरे बजा रही है । कहीं कोई स्त्री आधे खुले द्वार के पीछे संभवतः प्रियतम की प्रतीक्षा में रत है । कहीं नागपाश में बंधी हुई स्त्री का चित्र है । कहीं पर एक पत्नी व्रत की आराधना है अथवा यूं कहिए कि विवाह तथा बारात का चित्रण पत्थरों पर मूर्तियों को आकार देकर रचयिता ने किया हुआ है । एक स्थान पर कंधे पर काँवर लटकाए हुए एक व्यक्ति को सुखी अवस्था में दिखाया गया है । एक चित्र में एक स्त्री अपना श्रंगार कर रही है । कुछ स्थानों पर देवी-देवताओं के चित्र हैं । एक स्थान पर जिराफ का भी चित्र देखने को मिला । शेर और हाथी का चित्रण बहुतायत से किया गया है ।

एक स्थान पर भोग की मुद्रा में दो व्यक्तियों का चित्र है तथा तीसरा व्यक्ति एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में एक व्यक्ति के बाल खींचता हुआ दिखाई पड़ रहा है अर्थात दंडित करने के लिए उद्यत है । बड़ी संख्या में मंदिर की दीवारें भोग-विलास में डूबी हुई स्त्री-पुरुषों की दिनचर्या और गतिविधियों को इंगित करने के लिए सजाई गई हैं । कुछ स्थानों पर मर्यादा का अतिक्रमण है तथा अनियंत्रित भोग-विलास के चित्र दिखाई पड़ते हैं । यह कहना कठिन है कि कोणार्क का सूर्य मंदिर उच्छृंखल यौन व्यवहार को प्रतिष्ठित कर रहा है या फिर यह चित्रण सामाजिक जीवन की एक ऐसी वास्तविकता को दर्शाने के लिए किया गया है ,जिसको नियंत्रित करना रचयिता आवश्यक मानता है । इसके लिए तो हजारों की संख्या में दीवार पर तराशे गए एक-एक चित्र को गहराई से अध्ययन करके उनकी संरचना की संपूर्ण योजना को समझने की आवश्यकता पड़ेगी । यह कार्य दो-चार घंटे में पूरा नहीं हो सकता ।

कुछ भी हो ,संसार मृत्यु की अवधारणा से नहीं चलता । यह युवावस्था के उल्लास से ही संचालित होता है ,यह बात तो कोणार्क के सूर्य मंदिर का ध्येय-वाक्य कहा जा सकता है । इसमें अपने आप में गलत कुछ भी नहीं है।
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उदयगिरि के खंडहर
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भुवनेश्वर में उदयगिरि और खंडागिरी की गुफाएं भी हैं। हमने इन्हें भी देखा । गाइड के अनुसार यह 2000 वर्ष से ज्यादा पुरानी संरचनाएँ हैं । भूकंप आदि के कारण अब इनके खंडहर ही शेष बचे हैं। इन पहाड़ियों अथवा गुफाओं में कक्ष बहुत कम ऊंचाई के हैं । तथापि गाइड के अनुसार इन में कुछेक स्थानों पर बंकर जैसी अवधारणाएं भी छिपी हुई हैं । एक स्थान पर गाइड ने हमको बताया कि जब हम कुछ बोलते हैं तो प्रतिध्वनि सुनाई देती है ,लेकिन उसी के अगल-बगल एक मीटर दूर जब बोलते हैं तो आवाज सामान्य रहती है ।
यह खंडहर किसी बड़ी उच्च विकसित सभ्यता को प्रदर्शित नहीं करते। कम से कम आज के जमाने में जितना कला और विज्ञान का विकास हुआ है ,उसको देखते हुए यह खंडहर बहुत प्रारंभिक स्तर के निर्माण कार्य ही नजर आते हैं । इनका केवल ऐतिहासिक महत्त्व ही कहा जा सकता है ।
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हनुमान चालीसा और समुद्र तट
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भुवनेश्वर में मेफेयर होटल में हम ठहरे थे । वहां पर कमरे में सुबह 6:00 बजे लाउडस्पीकर पर कहीं से हनुमान चालीसा गाए जाने की आवाज सुनाई दी । सुनकर मन प्रसन्न हो गया । सांस्कृतिक दृष्टि से संपूर्ण भारत एक स्वर में अपने आप को अभिव्यक्त करता है, यह भुवनेश्वर में हनुमान चालीसा के सार्वजनिक पाठ से दिन की शुरुआत होने से स्पष्ट हो गया ।

पुरी में समुद्र के तट पर सोने की तरह चमकती हुई रेत का जिक्र किए बगैर यह यात्रा अधूरी ही कही जाएगी । विभिन्न सजे-धजे ऊँटों पर बच्चे और बड़े समुद्र के तट पर रेत पर सवारी करते हुए नजर आ रहे थे । घोड़े पर भी सवारी की जा रही थी। नींबू की मसालेदार चाय जो पुरी के समुद्र तट पर रेत पर बैठकर पीने में आनंद आया ,वह एक दुर्लभ सुखद स्मृति कही जाएगी।

हमारी यात्रा का अंतिम पड़ाव 14 तारीख को रात्रि 10:00 बजे मेफेयर होटल-रिसॉर्ट गोपालपुर पहुंचना रहा । अगले दिन एक आत्मीयता से भरे विवाह समारोह में सम्मिलित होकर हम पुनः भुवनेश्वर हवाई अड्डे से दिल्ली के लिए रवाना हो गए । गोपालपुर का समुद्र तट हमारे रिसॉर्ट के कमरे की बालकनी से चार कदम पर दिखाई पड़ता था । गोपालपुर का समुद्र तट और रिसॉर्ट का वास्तविक आनंद तो कुछ दिन ठहरने पर ही लिया जा सकता है तथापि उसकी जो झलक हमें मिली, वह भी कम आनंददायक नहीं है ।
पत्नी श्रीमती मंजुल रानी ,सुपुत्र डॉ रघु प्रकाश ,पुत्रवधू डॉक्टर प्रियल गुप्ता तथा पौत्री रिआ अग्रवाल के साथ संपन्न यह सुखद यात्रा स्मृतियों में सदा बसी रहेगी।
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लेखक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा ,
रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99976 15451

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